धानी सी चूनर पहन धरा
इतराये सुंदरता पर अपने।
चहुँदिशि ही शोभा है बढ़ी
पूरित हों ज्यों सारे सपने।
लहराती सी हैं नदियाँ डोलें
मन चंचल है खिला-खिला।
जंगल वन सब मुदित लगें
जीवन का मानों मंत्र मिला।
चहुँदिशि ही शोभा है बढ़ी
पूरित हों ज्यों सारे सपने।
नद नदियाँ सब सूख रहे थे
जीव जन्तु सब व्याकुल थे।
धरती भी पीली सी लगती
वन उपवन सब आकुल थे।
त्राहि त्राहि सी मची हुई थी
ग्रीष्म ताप लगते सब तपने।
मेघ चले वे हिय को रिझाने
घहर-घहर झम-झम बरसे।
धरणी हुई तृप्त मुदित मन
चैन मिला जन मन हरसे।
धानी सी चूनर पहन धरा
इतराये सुंदरता पर अपने।
डाॅ सरला सिंह “स्निग्धा”
दिल्ली