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जिन्दगी

जिंदगी ,तेरे कितने रूप

कभी बल खाती नदिया की तरह

बेबाक बेखौफ आगे बढ़ती जाती है ।

तो कभी डर सहम कर थम सी जाती है ।

कभी तपती है जेठ की दुपहरी सी

तो कभी बरसती है सावन की फुहारों सी।

जिंदगी ,तू कभी एक सी नहीं रहती

पतझड़ के आते ही गुमसुम हो जाती है

फिर बसंत को देखकर खिलखिलाती है।

कभी फागुनी बयार सी लहराती है ।

तो कभी इंद्रधनुषी रंगों मे रंग कर

दुल्हन सी नजर आती है।

जिंदगी, तू अनबूझ पहेली है

कभी ह्रदय में शूल तो कभी हँसी के फूल।

कभी नैनों से आँसू के मोती बरसाती है

तो कभी सहेली बन जख्मों को सहलाती है।

वक्त और किस्मत के हाथों कठपुतली बन

कल से अनजान ,बस दौड़ती जाती है।

स्वरचित

नमिता सिंह “आराधना “

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