अजीब है दुनिया वालों का बड़प्पन,
अपने अपने ना रह जाते,
कुछ गैर अपने हो जाते,
मुश्किल तो तब होता है,
सामने प्रेम जताते हैं
और पीछे से,
साजिशों के पुल बांधते हैं।
जुस्तजू जिंदगी की,
बस यही कहना बाकी रह गया
कहते है संस्कार जिसे,
उसे भी बखूबी छला गया।
प्रेम कैसा श्रृंगार कैसा,
प्रियवर संग अहंकार कैसा,
इन शब्दों के तबादले इतने हो गए,
हर रिश्ते अछूत जैसे हो गए।
बड़े लोगो की बस्ती में,
एक मामूली से इंसान की कदर नहीं,
मगर मामूली से इंसान के दरबार में,
बड़े लोगो की आवोभगत में,
मामूली से इंसान को,
खुद की फिकर नहीं।
कैसी हो गई है लोगों की शिक्षा,
कैसी हो गई है लोगों की सोच,
नीयत इतनी खोटी है,
तो कद कैसे बड़ा हो गया।
इतनी बड़ी दुनिया में,
लोगो के रवैए देखे हैं,
मां को रोते और,
बाप को बिलखते देखे हैं।
कैसे है तेरी लीला प्रिये!
क्या तू ये सब देख रहा है,
कैसे सह लेता है ये सब तू,
हे नंद के लाला!
एक अश्रु गिरने से भी,
तू तो ममता की भी,
लाज का रखवाला है।
अंत तू ही अत्यंत तू ही,
फिर क्यूं है इतनी धर्त यही। ।
नेहा यादव
लखनऊ, उत्तरप्रदेश