दुख में दीनानाथ हमेशा, साथ खड़े हो जाते हैं।
होते वही सहायक सबके, काम सभी के आते हैं।
आता है जो जीव शरण में,भवसागर तर जाता है।
दयासिंधु के धाम सहज ही, मानव वह जा पाता है।
जपले हरि का नाम सखी री, माया एक झमेला है।
चारदिनों का जीवन खाली, बस इतना ही खेला है।।
मानवता का सही आचरण,सबको यही सिखाता है।
परहित रत जीवन है पावन, सेवा भाव बताता है।
दुखी जनों की पीड़ा हरना, मानवता कहलाता है।
सत्पथ पर चलते रहने की, शिक्षा यह दे जाता है।
सबमें खुशी बांटते चलना, दान धर्म सिखलाता है।
पीड़ित करना गैरों को ही, पाप कर्म कहलाता है।
मानव तन पाया है जिसने, सबको पाठ पढा़ता है।
जीवन नहीं व्यर्थ यह जाये,सीख हमें दे जाता है।।
औरों को दुख देने वाला, भला कहां सुख पाता है।
मिलता जब फल करनी का है, हाय हाय चिल्लाता है।
जोड़ तोड़ कर भरा अटारी,यहीं धरा रह जाता है।
देह तलक साथी कब अपने, खुदको क्यों भरमाता है।
कांटों को जो बोने वाला, पुष्प कहां फिर पाता है।
बोया पेड़ बबूल अगर तो, आम कहां फिर खाता है।
डॉ. सरला सिंह “स्निग्धा”
दिल्ली