नदी की व्यथा
मैं नदी हूं बहती अनवरत,
देती हूं जीवन सभी को ।
राह के चट्टानों को तोड़ती,
बढ़ती ही रहती मैं सतत।
सदियों से मेरे संग संग ही,
इंसा विकास पथ पर डोला।
आकांक्षाओं के अपने नीचे,
सबकुछ तुम फिर भूल गये।
मेरी ही धारा को मोड़ा फिर,
मुझको ही बन्धन में बांधा ।
मेरी लहरें तड़प उठी फिर ,
मेरा तन-मन कितना रोया ।
ज़हरीले गन्दे पानी को तूने,
मेरे ही जल में मिला दिया ।
हार रही बस इंसा के आगे,
जिसे दिन-रात सींचती हूं ।
मेरी निर्मल धारा के घातक,
पापियों को ही देती जीवन।
पाओगे कहां तुम निर्मलजल,
निर्मल जलधारा ही ना होगी।
जीवन दायिनी मैं माता तेरी ,
मैं कैसे फिर तुझे बचाऊंगी ।
सूख गयीं कितनी बहनें मेरी,
कुछ रोती हैं अपनी हालत पे।
मानव तू सिरधुनकर रोयेगा,
गर ऐसी ही रही हालत तेरी ।
अभी समय हो जा सचेत तू,
गहनव्यथा समझ जा मेरी तू।
डॉ.सरला सिंह
दिल्ली