नफरतों की क्यों खड़ी दीवार तेरे शहर में।
ढूँढता मैं फिर रहा हूँ प्यार तेरे शहर में।
गाँव जैसी बात होती ही नहीं है आपसी
हो गया हूँ मैं तो बस लाचार तेरे शहर में।
देखता हूँ मांगते हैं सब दुआ ही या दवा
हैं सभी ही लग रहा बीमार तेरे शहर में।
चीज़ हर ही मिल रही है हर गली हर मोड़ पे
पर खुशी का कब मिला बाज़ार तेरे शहर में।
मिल रहा है थोक में बस हर जगह इनकार ही
तू दिला दे आ मुझे इकरार तेरे शहर में।
किस समय पर कौन किसको बेच डाले क्या पता
रिश्तों का भी हो रहा व्योपार तेरे शहर में।
धूप में मैं पेड़ ढूँढूँ पर नहीं है मिल रहा
पर मिले हैं हर तरफ़ अँगार तेरे शहर में।
ढूँढता हूँ महफिलों में हर जगह ही मैं तुझे
कह रहा हूँ मैं तभी अशआर तेरे शहर में।
लग रहा है हर किसी को खून की ही प्यास है
हर किसी के हाथ में तलवार तेरे शहर में।
हरदीप बिरदी