हम तो ऐसा ही लिखते हैं
दलील ये अच्छे दिखते हैं
मौलिकता का हो विश्वास
नयी शैली का शिलान्यास
खींच कर एक नई लकीर
लिख डाले वो नई तहरीर
तय नियम में ला बदलाव
दूर ही हो बोझिल ठहराव
हो सहज ग्राह्य तथा सरल
मधु सा मीठा, ना हो गरल
नव विधा ही हो अतिप्रिय
कविता को करे लोकप्रिय
भावी काल रहा निर्णायक
तय करेगा असली नायक
हठी ठहरे कविवर निराला
निजी पदचिह्न बना डाला
अनुसरण करते लोग बाग
गुणगान में लें सहर्ष भाग
समझें कला का अपमान
उन्हें निश्चित हो यह भान
निवेदन है झुकाकर शीश
स्थायी ना रहते मठाधीश
स्वछंद निखरती है कला
शायद हिंदी का हो भला
…………।।।।।
संजीव कुमार चौधरी