कुछ ठान लो अपने मन में,
आ स्वयं को पहचान लो।
भीड़ भरी इस दुनिया में,
तुम भीड़ नहीं हो जान लो।
चलो प्रकृति की गोद में,
फिर खुशियों की कुटी छवायें।
वादियों के आँगन में,
तुम्हें बुला रही निर्मल हवायें।
आचार और व्यवहार को,
चलो फिर से संयत कर लो।
श्रेष्ठ आर्य संतति हो तुम,
अब हर संशय दूर कर लो।
जियो और जीने दो का,
मंत्र सदा रहा अपना।
अंधी दौड़ में भागना,
रहा नहीं कभी सपना।
दंग हो रही दुनिया सारी,
माना था मूढ़ जिसे अब तक !
आओ बनें गुरु फिर से हम,
हम नींद में रहेंगे कब तक?
अपने दर्शन को जग में,
चलो फिर आदर्श बनायें।
हमारी संस्कृति को फिर से,
सारी दुनिया शीश झुकाये।
है अँधियारा फैल रहा,
उम्मीद का ज्योत फैलायें।
निराशा के तम को चीर दें,
आओ मिलकर दीया जलायें।
डॉ उषा किरण
पूर्वी चंपारण, बिहार