हिन्दी भारत की मातृभाषा हैं।यह सबसे ज्यादा बोले जाने वाली भाषाओ में से एक हैं।एक ऐसी भाषा जिसे हम जैसे लिखते हैं वैसे ही बोलते भी हैं।हिन्दी शब्द का वास्तविक अर्थ “सिन्धु नदी की भूमि” हैं।1918 ईस्वी में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी ने हिंदी साहित्य सम्मेलन में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु अपने विचार रखे थे।भारत के आजाद होने के बाद कई बार यह आवाज उठी की हिन्दी को पूरे देश में एक साथ अपनाया जाए।देश को आजादी मिलने के बाद भी देशभर में अंग्रेजी के बढ़ते उपयोग और हिन्दी के बढ़ते दुरुपयोग को देखा गया।आजादी के बाद देश के सामने भाषा को लेकर सबसे बड़ा सवाल खड़ा था।हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने को लेकर कुछ लोग विरोध में थे।14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने एकमत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी भारत की राजभाषा होगी।तब से हिंदी हमारी राजभाषा हैं।इस भाषा के प्रचार-प्रसार हेतु पहली बार 14 सितंबर 1953 को हिंदी दिवस के रूप में मनाया गया था और तब से ही प्रत्येक वर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता हैं।संविधान के भाग 17 के अध्याय 343(1) में हिंदी को संघ की राजभाषा का दर्जा प्राप्त हैं।यह स्पष्ट लिखा हैं संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी।गांधी जी हिन्दी को जनमानस की भाषा मानते थे और यह जनमानस की भाषा हैं भी। इस भाषा का इतिहास सैकड़ो वर्ष पुराना हैं।यह दुःख का विषय हैं कि भारत को आजादी मीले 70 वर्ष से अधिक हो गए पर आज भी हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त नहीं हैं।देशभर में एक साथ कामकाज की भाषा हिन्दी को उसका सम्मान मिलना बाकी हैं।बिहार वो पहला राज्य है जिसने हिंदी को अपनी आधिकारिक भाषा के रूप में अपनाया हैं।
आज हमसभी हिंदी को दरकिनार कर अंग्रेजी एवं अन्य विदेशी भाषाओं को महत्त्व देते जा रहे हैं। अपने आने वाले पीढ़ी को हिंदी का ज्ञान न देकर अन्य भाषाओं को पढ़ाने में गर्व महसूस कर रहे हैं।वही पीढ़ी माता-पिता का को तिरस्कृत कर रहा हैं।उनका अपमान कर रहा हैं। मुझे ज्ञात है कि यह प्रश्न मन में आना स्वाभाविक हैं कि अंग्रेजी एवं विदेशी भाषाएँ कैसे तिरस्कार एवं अपमान करा रही हैं? उसके जवाब में यही कहना चाहूंगा कि संस्कृत एवं हिंदी की तरह कभी भी अन्य भाषाएँ संस्कृति एवं नैतिकता का पाठ नहीं पढ़ा सकती।हमें नहीं भूलना चाहिए हिंदी भाषा केवल और केवल भाषा ही नहीं अपितु हमारे देश की संस्कृति और सच्चे मूल्यों का प्रतिबिंब हैं।हिंदी पूरे विश्व में चौथे स्थान की भाषा हैं।विश्व आर्थिक मंच ने भी माना था कि विश्व की दस शक्तिशाली भाषाओं में हिंदी का स्थान है पर भारत में इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिलना बहुत दुःखद हैं।हमसभी आज आजाद हैं। आजादी की सांस ले रहें हैं फिर भी हम उस भाषा को बोलने में अपनी प्रतिष्ठा समझते हैं जिसके हमसभी गुलाम रह चुके हैं।आखिर विदेशी भाषा बोलने को हम क्यों मजबूर हो रहे हैं?अपने बच्चों या आने वाले पीढियों को हिंदी का ज्ञान क्यों नही दे रहे? इनसभी प्रश्नों का जवाब स्वयं से तलाशने की आवश्यकता हैं।
1977 में देश के पूर्व प्रधानमंत्री एवं साहित्य के आगाध प्रेमी अटल बिहारी वाजपेयी जी ने जब संयुक्त राष्ट्रसंघ में अपना पहला भाषण हिंदी में दिया एवं तमाम प्रतिनिधि मंडल को संबोधित किया।सभी अवाक रह गए और उनके भाषण के समाप्त होने पर सभी ने खड़े होकर तालियों की गड़गड़ाहट से उनका अभिनंदन किया था।भारत के लिए यह बेहद गौरव का क्षण रहा जब यूएन के अंतरराष्ट्रीय मंच से भारत का एवं भारत की मातृभाषा हिंदी का मान बढ़ा। हम सभी को इसका ध्यान रखना चाहिए।आज हम सभी की इच्छा है कि हिंदी का मान एवं प्रतिष्ठा बढ़े।हमसभी हिंदी को संयुक्त राष्ट्रसंघ में मान्यता दिलाने को आतुर हैं पर अपने ही देश में इस भाषा को नजरअंदाज कर रहे हैं। आज जहां हिंदी की बात आती हैं वहां लोग शर्मिंदगी महसूस करते हैं और कहते हैं मुझे यह भाषा नहीं आती।आखिर बिना प्रयास किये किस प्रकार आएंगी? हम अंग्रेजी को सीखने के लिए या अपने बच्चों को सिखाने के लिए प्रयास करते हैं।अनेकों रुपये पानी की तरह बहाते हैं लेकिन अपनी देश की मातृभाषा हिंदी हेतु प्रयास नहीं कर सकते हैं,आखिर क्यों?जो व्यक्ति हिंदी बोलता हैं उसे लोग आज गंवार एवं देहाती बता कर उसका मनोबल नीचा करने का प्रयास करते हैं।लेकिन सच्चाई तो यही है कि वह गवार और देहाती नहीं अपने राष्ट्र का परिचायक हैं।अपनी मातृभाषा का रक्षक हैं।भाषा को लेकर हमारी सोच उसके उन्नति में सबसे बड़ी बाधक बन रही हैं।हमे अपनी सोच को बदलना होगा।भाषा वह माध्यम है जो देशों को, प्रांतों को,जिलों को,प्रखंडों को, आपस में जोड़ने का काम करती हैं परंतु हिंदी वह भाषा एवं माध्यम है जो दिलों को दिलों से जोड़ने का काम करती हैं।यह भाषा सारे भाव स्पष्ट करा देती हैं।ऐसा नही हैं कि अंग्रेजी या अन्य भाषाएं भाव स्पष्ट नहीं कराती पर हिंदी भाव स्पष्ट के साथ-साथ दिल का दर्द,संवेदना आदि सब दर्द बाँट देती हैं।प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर नजदीक आते ही इसकी शुभकामनाएं भेंजी जाती हैं।पखवाड़ा के अंतर्गत कवि-सम्मेलन,संगोष्ठी, प्रतियोगिताएँ जैसे अनेक हिंदी कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं परन्तु जैसे ही पखवाड़ा समाप्त होता हैं सभी का ध्यान हिन्दी से भटक जाता हैं।ऐसा नहीं होना चाहिए जब तक हिंदी देश की राष्ट्रभाषा नहीं बन जाती निरंतर प्रयास करना चाहिए।हिन्दी दिवस एक दिन जरूर हैं पर हिन्दी की बात एवं उसके विकास की बात हर दिन होनी चाहिए।आजादी के इतने वर्षों बाद भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं बनाना दुर्भाग्यपूर्ण हैं। इसपर सरकार को विशेष ध्यान देना चाहिए एवं हिंदी को उसका सही सम्मान दिलाना चाहिए।हिंदी भाषा के विकास हेतु इसे रोजगार के साथ जोड़ना चाहिए।जब सभी देशवासी एक साथ आकर हिंदी के प्रति अपना योगदान देंगे तब हिंदी दिवस मनाने की आवश्यकता नही पड़ेगी एवं इसे सही सम्मान मिल जाएगा।बहुत दुःख होता हैं जब अपने ही देश में अपनी मातृभाषा को छोड़ किसी अन्य भाषा को अपनाया जाता हैं।हालांकि एक खुशी की बात हैं कि प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया,समाचारपत्र-पत्रिकाओं के संपादक,कई संस्थाएँ हिन्दी और हिन्दी साहित्य की सेवा में अनवरत जुटे हैं।हिन्दी के प्रचार-प्रसार हेतु,हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु दिन-रात प्रयासरत हैं और यह प्रयास अवश्य रंग लाएंगी।
✍🏻 राजीव नंदन मिश्र (नन्हें)
(कवि एवं लेखक)