हे राम! तुम आ जाओ ना ।
त्रेता से कलि है विषम बहुत,
आकर मुक्त कराओ ना ।
बन्धन मे पड़ी लाखों सीताएँ ,
रावण से कहीं दुस्साहस वाले रावण ।
अब तो खड़े निज देश में ,
असंख्य राक्षस छिपे नर वेश में ।
हे राम ! तुम आ जाओ ना ।
पड़ने न दो विश्वास फीका ,
आँखों में संसार के ।
इक बार फिर दिखला दो प्रभु,
सत्य सर्वोपरि सदा ।
नर ही नरबलि दे रहा ,
रक्षक भक्षक बन फिर रहा ।
मर्यादायें खंडित हो रही ,
रावण दरबार भी शर्मा रहा ।
क्यों अब भी रुके हो राम ,
अब तो धरा पर आओ ना ।
धरती भी अब काँप रही,
देख निज पुत्रों की दुर्दशा ।
जल अरु पवन भी रो रहे ,
गंगा की भी आँखें भर आई हैं ।
मंदिर बने व्यापार -गृह ,
साधु व्यापारी बन चले ।
न मार्ग दिखलाई पड़े ,
भटकाव सा है राह में ।
विद्रोह -सा करने लगा मन,
तुम हो कहाँ अब आओ ना ।
हे राम! तुम आ जाओ ना ।
मदमस्त रावण से भी अधिक,
कर्तव्य- पथ विचलित सदा ।
धर्म से भी दूर असत्य के पालक ,
दुर्जन फिरें चहुँदिशि यहाँ ।
अब देर न करना प्रभु तुम ,
शीघ्रता से आओ ना ।
संसार को बस आस तेरी ,
इसे पूर्ण कर दिखलाओ ना ।
डॉ.सरला सिंह “स्निग्धा”
दिल्ली