श्रीमती आहूजा की आंखें बंद होने के साथ ही सुनीता को जीवन में अंधकार नज़र आने लगा था। एक अनाथ लड़की का एकमात्र सहारा उसकी मालकिन भी अब नहीं रही थी। उनके दोनों बच्चे विदेश से वापिस आ गए थे। क्रियाक्रम होने के बाद थोड़ी देर में ही सब लोग अपने अपने घर लौट गए थे। आहूजा मैडम के दोनों बेटे और उनका परिवार ही अब बंगले में रह गया था। सुनीता रसोईघर में खाना बना रही थी तभी उसे किसी ने आवाज़ लगाई। वह दौड़ते हुए लॉबी में पहुंची तो पूरा परिवार वहां पर जमा था। कोई गंभीर वार्तालाप चल रहा था। “सुनीता तुम तो पढ़ाई कर रही हो ना ?” बड़ी भाभी ने पूछा। “जी भाभी। प्राइवेट बी ए कर रही हूं। मालकिन चाहती थी कि मैं एम ए तक पढ़ाई करूं। परंतु अब…..” कहते कहते सुनीता चुप हो गई। सभी लोग गौर से उसे देख रहे थे। ,” अच्छा सुनो, सबके लिए एक एक कप चाय बना दो। अदरक ज़रूर डालना। और हां सब में तुम भी आती हो।” दीदी ने सोफे पर लेटते हुए कहा। ” मैं आती हूं किचेन में तुम्हारे साथ।” छोटी भाभी सुनीता के साथ रसोई में आ गई।” चाय के साथ थोड़े पकोड़े भी तल लेते हैं।” भाभी ने चाय चढ़ाते हुए कहा। सुनीता पकोड़े बनाने की तैयारियों में जुट गई। मालकिन के जाने के बाद आज़ पहली बार पूरा परिवार फुर्सत में बैठा था। सुनीता जी जान से उनकी सेवा में जुटी हुई थी। रह रह कर मालकिन की याद आ रही थी। ” सुनीता तुम मेरी नौकर नहीं, बेटी हो। दो बेटे और एक बेटी दी थी भगवान ने मुझे। तुम्हारे रूप में दूसरी मिल गई है।” सुनीता उनकी इस बात पर गदगद हो जाती। भगवान का धन्यवाद करती।
पंद्रह साल की थी जब उसकी मौसी उसे यहां छोड़ गई थी। पहले मौसी के साथ आया करती थी इस घर में काम करने लेकिन जब मालकिन का पैर टूटा तो यहीं रहना पड़ा। उनके दोनों बेटे और बेटी विदेश में रहते थे। वे उन्हें साथ ले जाने को तैयार थे लेकिन वो भारत में ही रहना चाहती थी। सुनीता उनकी परमानेंट केयर टेकर नियुक्त हो गई थी। सुनीता भी सुकून से रहने लगी थी। घर घर जाकर बर्तन धोने से बेहतर था मालकिन की सेवा करना। पैर ठीक हुआ तो उन्होंने सुनीता को घर का कामकाज सिखाना शुरू कर दिया। फिर एक टीचर को बुलाकर उसकी पढ़ाई शुरू करवा दी।
“सुनीता तुम चाय कप में डालकर ले आओ। सब लोग साथ ही बैठकर चाय पियेंगे।” भाभी पकोड़े प्लेट में रखते हुए बोली। सुनीता ने चाय केतली में डाल दी और कप ट्रे में रखकर भाभी के पीछे पीछे लॉबी में आ गई।
“मम्मीजी ने तुमसे कुछ कहा था जाने से पहले ?” बड़ी भाभी ने प्रश्न किया। ” सुनीता को थोड़ा अटपटा सा लगा। ” नहीं कुछ खास नहीं। बस बच्चों को याद कर रही थी।” उसने कुछ सोचते हुए कहा। सब लोग एक दूसरे की ओर देखने लगे।
“कल हम लोग वापिस जा रहे हैं।” बड़े भैया ने सुनीता से कहा।
“जी भैया, मैंने अपना सामान बांध लिया है। कल मौसी के घर चली जाऊंगी।” सुनीता ने कप उठाकर प्लेट में रखते हुए कहा।
“तुम कहीं नहीं जा रही हो सुनीता।” दीदी ने सुनीता का हाथ पकड़ लिया।
“मम्मी इस घर को तुम्हारे नाम करके गई हैं। तुमने उनकी इतनी सेवा की, यह उपहार है उनकी ओर से।” सुनीता को अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था।
“दीदी, मैं अकेले यह नहीं संभाल पाऊंगी। मालकिन के साथ रहने की बात अलग थी। मैं मौसी के पास ही चली जाऊंगी।” सुनीता ने अपनी बात रखी लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं था। ” यह हम सबकी सहमति से, मम्मी का दिया हुआ नए साल का तोहफा है तुम्हारे लिए। तुम पढ़ाई पूरी करो और फिर यहीं पर अपना स्कूल खोलना।” सबने एक साथ कहा तो सुनीता की आंखों में आसूं आ गए। मालकिन अपनी फोटो में मुस्कुराते हुए उसे देख रही थी।
अर्चना त्यागी