दर्द का मंज़र है तुम कहां हो पापा,
ज़ख्मी मेरा दर है तुम कहां हो पापा ।
जुल्म का चश्मा रखे हैं अब अपने ही
पीठ में नश्तर है तुम कहां हो पापा।
छा चुकी हैं बर्बरी घटाएं शब में ,
खौफ में छप्पर है तुम कहां हो पापा।
झुकने से मिलती विजय गलत है बापू
टूटने को घर है तुम कहां हो पापा ।
ज़ुल्मों से,लड़ना सदा उचित पर दानी,
सामने, डायर है तुम कहां हो पापा।
( डॉ संजय दानी )