गंगावतरण की कथा, चलो सुनायें आज
महा प्रतापी सगर का, था विशाल साम्राज
धर्म कर्म में श्रेष्ठ जो, रहे बड़े विद्वान
षष्ठी सहस्त्र पुत्र थे, सब थे वीर महान
सपना चक्रवर्ती का, करने को साकार
अश्वमेध के यज्ञ का, नृप ने किया विचार
धूमधाम से राज्य में, सकल कर अनुष्ठान
छोड़ा नृप ने अश्व को, शुरू हुआ अभियान
चर्चा फैली सगर की, पहुँची चारों ओर
बढ़ा यश इक्ष्वाकु का, जन जन हुआ विभोर
यश सुन असित कुमार का, वासव के बिगड़े बोल
आशंका मन में जगी, गया सिंहासन डोल
किया कपट फिर इन्द्र ने, हय को लिया चुराय
बाँध ऋषिकुल प्रांगण में, छल से दिया छुपाय
ढूँढ़ मची फिर अश्व की, जल थल में पाताल
कोई भी न समझ सका, कुटिल इन्द्र की चाल
चले ढूंढ़ने अश्व को, पुत्र षष्ठी हजार
मिला बँधा बाजी उन्हें, कपिल ऋषि के द्वार
सगर पुत्र क्रोधित हुए, मति का रहा न भान
मुनिवर का मठ ध्वस्त कर, किया घोर अपमान
तप में जब बाधा पड़ी, हुई तपस्या भंग
कुपित कपिल मुनि हो उठे, उठे क्रोध के संग
मचा रहे उद्दंडता, आश्रम में उद्दण्ड
मुनि का रक्त खौल उठा, आया क्रोध प्रचंड
ज्वाला दहकी चक्षु से, भये सगर सुत भस्म
मुक्ति दिलाये कौन अब, कौन निभाये रस्म l
एक सगर सम्राट के, पौत्र थे अंशुमान
ज्ञानी कर्मशील थे, थे विनम्र विद्वान
पहुँचे कपिल के आश्रम, कुल दीप अंशुमान
कर जोड़ ऋषि के आगे, खड़े छोड़ अभिमान
की मुनिवर की अर्चना, मुनिवर हुए प्रसन्न
फिर तारने पुरखों को, किया कपिल से प्रश्न
संस्कार कैसे करूँ, कैसे रीति रिवाज
कैसे मैं तर्पण करूँ, पुरखों का ऋषि राज
प्रभु विधि कोई बताइए, हो मुझ पर उपकार
पुरखों को मुक्ति मिले, हो उनका उद्धार
पिघले ऋषि तब देखकर, सच्चे मन की चाह
होकर प्रसन्न कपिल ने, तब बतलाई राह
मेरे वश में अब कहाँ, रहा न कुछ भी हाथ
ब्रह्मा जी की हो कृपा, हो विधि का भी साथ
गंगा स्वर्ग निवासिनी, कर सकतीं उद्धार
भू पर यदि कोई उन्हें, ले आये साकार
सुनकर ऋषि के बोल तब, बँध गई एक आस
प्रण लिया फिर राजन ने, करने कठिन प्रयास
भावपूर्ण माँगी विदा, जोड़ कर दुई हाथ
अंशुमान वापस हुए, लेकर हय को साथ
पहुँचे हय को साथ ले, वापस अंशुमान
पूर्ण कराया यज्ञ को, बढ़ा सगर का मान
अंशुमान जग छोड़ कर, करने कर्म कठोर
चले मुक्ति की चाह में, हिम पर्वत की ओर
आजीवन करते रहे, तपस्या अंशुमान
सारी उम्र निकल गई, छूटे उनके प्रान
नृप दिलीप ने तब लिया, अंशुमान का भार
छोड़ दिया तप के लिए, पीछे सब संसार
लीन हिमालय में रहे, बरसों बरस दिलीप
की अराधना ब्रह्म की, पहुँचे और समीप
परवश मौसम से हुए, हुए रुग्ण गम्भीर
छोड़ जगत को चल दिये, त्याग अलील शरीर
दिलीप सुत भगीरथ ने, छोड़ा नहीं विकल्प
सगर सुतों को तारने, लिया अटल संकल्प
अपने अधीनस्थों को, सौंप के राज की डोर
लिये कमण्डल हाथ में, चले हिमालय ओर
प्रभु अराधना में रहे, बरसों तक तल्लीन
खोया अपने आप को, ईश भक्ति में लीन
सुध बुध सब बिसरा गई, जग से रहे अज्ञेय
भूल सकल संसार को, रहा एक ही ध्येय
कुल को अपने तारने, तपस्या की कठोर
भू पर गंगा आ सके, लगा दिया पुरजोर
भूख प्यास सब त्याग कर, रहे ध्यान में लीन
भक्ति राह चलने लगे, होकर के तल्लीन
श्राप मुक्त करने किया, भागीरथी प्रयत्न
कठिन तपस्या देख के, ब्रह्मा हुए प्रसन्न
दुखियों के दुख टारने, करने कष्ट निदान
भू पर गंगा को दिया, आने का वरदान
आशंका सब को हुई, हो न जाये अनर्थ
विष्णुपदी को थामने, धरती नहीं समर्थ
कौन संभालेगा भला, तीव्र सलिल का वेग
रसातल पहुँचायेगा, धरती को संवेग
शिव जी यदि तैयार हो, जायें लेने भार
तब ही कर सकतीं वहाँ, गंगा जी उद्धार
तब शिव जी को साधने, फिर से किया प्रयत्न
रहे पद अंगुष्ठ खड़े, वर्षों योगी रत्न
तप योगी का था कड़ा, अराधना निर्दोष
हुए प्रसन्न निहार कर, सदाशिव आशुतोष
ज्येष्ठ शुक्ल वासर दशम, समय काल अनुकूल
हर्षित था ब्रह्मांड भी, पुलकित धरा समूल
विष्णु पद से तब निकलीं, चलीं धरा की ओर
लहरें नर्तन कर उठीं, चलीं मचाती शोर
गर्जन से गुंजित हुआ, जगत गया सब डोल
शंकर पर्वत पर खड़े, सभी जटाएं खोल
नैनों में न समा सका, ऐसा रूप विशाल
माँ गंगा भू पर चलीं, लिये रूप विकराल
अगवानी करने खड़े, सुर, नर, दानव राज
विनती सब करने लगे, पूर्ण हो महा काज
उत्सुकता सब को बड़ी, सब ने किया प्रणाम
आशंका मन में रही, क्या होगा परिणाम
रत्नाकर सा रूप था, थी जल राशि विशाल
शिव ने पल भर में लिया, जटाओं में सँभाल
की अगवानी गंग की, भोलेनाथ सहाय
सिर पर धारण जब किया, गंगाधर कहलाय
करतल ध्वनि होने लगी, हुई सुमन बरसात
सकल जग उल्लसित हुआ, हुआ नवीन प्रभात
मिली धरा को स्वर्ग से, गंगा की सौगात
बड़ा अनोखा दृश्य था, बड़ी अनोखी बात
उलझ गईं जटाओं में, हुईं बहुत गुमराह
कैसे निकलेंगी भला, नहीं सूझती राह
शंकर ने लट खोल दीं, निकली सिर से धार
गंगा फिर उद्यत हुईं, करने जग उद्धार
चले भगीरथ सामने, देवदूत सादृश्य
भगीरथी पीछे चलीं, बड़ा मनोरम दृश्य
कहाईं मोक्षदायिनी, कर के पाप निवार
मार्ग में जो भी मिले, किया सकल उद्धार
लाये भागीरथ उन्हें, ऋषि कुल कपिल विशेष
पड़े हुए थे जिस जगह, पुरखों के अवशेष
पतित पावनी ने किया, उन सब का उद्धार
ऋषि श्राप से मुक्त किया, खुल गया मोक्ष द्वार
हो प्रवाहित जा पहुंचीं, भागीरथ के संग
रत्नाकर में मिल गईं, जाकर माता गंग
गंगा भू को स्वर्ग का, है पावन उपहार
धन्य धरा है जो लिया, गंगा ने अवतार
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नाम : अजय कुमार पाण्डेय
पिता का नाम : स्व. शारदा प्रसाद पाण्डेय
माता का नाम : स्व. श्रीमती कलावती पाण्डेय
जन्म : 11 जुलाई, 1959, भुआ बिछिया, जिला- मण्डला (म.प्र.)
शिक्षा : स्नातकोत्तर : शास. महा विद्यालय बालाघाट (म.प्र.)
विधा : कविता, गीत, हिन्दी ग़ज़ल, कहानी. उपन्यास।
सम्मान : ‘बद्री नाथ चौकसे स्मृति साहित्य सम्मान 2015’. अनुराधा प्रकाशन की ओर से ‘साहित्य रत्न 2015’.
‘काव्य गौरव 2016’, ‘साहित्य श्री’, ‘साहित्य गौरव’, ‘राष्ट्र भाषा गौरव’ आदि अनेक सम्मान।
प्रकाशन : ‘बेशरम की झाड़ियां’ (कविता संग्रह), ‘स्रोत से बहते शब्द’ (कविता संग्रह), ‘जब धरा पर चांद की बारात आई” (ग़ज़ल संग्रह) ‘उड़ जायेगा हंस अकेला’ (उपन्यास), ‘बादल एक आवारा सा’ (उपन्यास) ‘एक कदम शेष’ (कहानी संग्रह), ‘श्री छंद वल्लरी’ (शैक्षणिक) एवं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा साझा संकलनों में कहानियों एवं कविताओं का निरंतर प्रकाशन।
सम्प्रति : सेवा निवृत भू वैज्ञानिक, हिन्दुस्तान कॉपर लिमिटेड, मलांजखण्ड।
स्थायी पता : सी-402वॉल्फोर्ट सफायर, श्री संकल्प हॉस्पीटल के सामने, सरोना, जिला– रायपुर (छ.ग़.) 492010
फोन नंबर : 09425875128
ई-मेल पता : ajaypandey117@gmail.com.
अजय कुमार पाण्डेय
सी-402वॉल्फोर्ट सफायर,
सरोना, जिला- रायपुर (छ.ग़.) 492010