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जुगनू इन रातों के : अनिल भारद्वाज एडवोकेट

शीतल नहीं चांदनी रातें,

उमस भरा सारा दिन,

जाने कहां छिपी वर्षा ऋतु,कहां खो गया सावन।

फूलों के मौसम में जिसने ढेरों स्वप्न संजोए,

बिना आंसुओं के वो क्यारी चुपके चुपके रोए।

सूख रहे हैं पुष्प लताऐं, प्यासी है अमराई,

किसी पेड़ की छाया में,जाकर लेटी पुरवाई,

जाने कहां जा बसे वे दिन,रिमझिम बरसातों के,

चुरा ले गईं गर्म हवाऐं, जुगनू इन रातों के।

इस मौसम में पहले से भी,दुबली लगती नदिया।

रूठ किनारों से उदास सी,बहती रहती नदिया,

इस ऋतु में जो पक्षी आते,रास्ता भूल गए हैं।

शीतल झरने पहाड़ियों के,बहना भूल गए हैं।

अंजुरी भर बारिश करके,ये अंबर हार गया है,

हरे भरे पत्तों को शायद,लकवा मार गया है।

नहीं भुलाई जातीं वे,पिछले सावन की रातें,

जिनमें दो भीगे दिल करते,भीगी भीगी बातें।

अब रह रह के याद आ रहीं,वे मखमली फुहारें,

कोई भादों से कह दे,ले आए मस्त बहारें।

गीतकार -अनिल भारद्वाज एडवोकेट उच्च न्यायालय ग्वालियर

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