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“कलबूत” – वंदना गर्ग

अरे वाह! आ गई आप
वेलकम! वेलकम!कुशन की टेक लगाकर आराम से बैठीऐ (मनोवैज्ञानिक ने मुस्कुराते हुए आदर भाव से कहा)
मैं चाय वाय का इंतजाम करती हूं, मौसम भी अच्छा हुआ है,
सच्च पूछो तो मॉनसून की बात ही अलग होती है, है ना!
क्या कहती हैं आप?
हां बिलकुल , ठीक कहा!
हर मौसम का लुत्फ ही अलग होता है कभी
ठीक कहा, लेकिन कहीं अगर कोई मौसम अटक जाए तो
तो सारा सिस्टम ही लडखडा जाएगा मुश्किल होगा कुछ कहना, हालांकि यह सिर्फ कल्पना ही है ऐसा कुछ होता नही है। (हाहाहा)
लीजिए गरमा गरम चाय, वाह खुशबूदार, मसालेदार
चाय क्या बात है! लुत्फ दोगुना हो गया (हाहाहा) हसीं की धीमी स्वर में
कुछ तो कहिऐ आप, केवल मुस्कुराए जाने से काम नही चलेगा,
हम्म! लम्बी सांस खींच कर…
सोच रही हूं कहां से शुरूआत करूं? कहीं आप कुछ और न समझ लें?
अरे ऐसे कैसे? हम दोनो अच्छे दोस्त भी हैं, भरोसा रखिऐ मुझपर और रखना भी चाहिए,  डरीऐ मत, आराम से कहीऐ यहां कोई भय वाली बात नहीं है
नहीं वो बात नहीं थी…
ट्रस्ट मीं इटस बिटवीन यू एंड मी मेरा मतलब डाक्टर और क्लाइंट,  रिलैक्स!
यह मेरा प्रोफेशन है।
हां, ( हां में सिर हिलाते हुए)
हां ठीक है,
वेरी गुड, बताओ आप, एक एक कर के सब बताए
वो वो,( कुछ हिचकिचाहट भरी आवाज में)
पिछले कुछ दिनों से लगने लगा है कि मेरे चिहरे पर कुछ जमा सा हुआ है चेहरे पर, बार बार आईने में झांकने पर और अधिक मजबूत जमावट के होने एहसास होता है, कहीं वहम तो नही है? या फिर कोई और चेहरा या मुखौटा ? अजीब ख्याल है यह तो, आप क्या सोचेंगी? कि मैं तो सच में ही पागलपन में हूं।
नहीं, नही, मैं वहम वगैरह में नही पड़ती अपनी मां की तरह, या फिर…
इसे जरा अच्छे से  धोकर देखती हूं, तो भी
तो भी यह जमावट टस से मस नही होती, ऐसे लगता है जैसे एक नहीं कई पर्तें हैं
कि एक नही कई मुखौटे परत दर परत चढ़ चुके है, कुछ ओर करती हू, क्या ? जोर से हसूं रोऊं या फिर  चिललाऊं एक महीन सी भी दरार नहीं उभरती रही, कोई सिरा भी नहीं कि उधेड़ने लगूं जहां से, इतनी सख्त परतें कहां से आई? कि अंदर मेरी कोमलता अब तो दम तोड़ने लगी है, कभी-कभार मन ही मन हार मानने लगती हूं,
ध्यान हटाना भी मुमकिन नही अक्सर,  कुछ एक लकीरें सबूत हैं सख्ती का, मुखौटों की हठधर्मिता का, औजार नही है कहीं तोड़ने वाले, सहज ही उतर आए यह मुखौटे और मुह कही बाकी रहा ही नहीं, वो पहली पहल जब कोई छोटी मोटी सी चोट पर मैं या फिर हम सब मुस्कुराए होंगे या सहज ही डरे होंगे मुझको लगता है, अंदर की टीस को दफन करने के कारण से ही शायद मुखौटों  का जन्म हुआ होगा, नेक्स्ट टाइम
खैर छोड़ो अब यह सब जानकर क्या करना है जान कर,  फिलहाल तो कोई दरार कहीं ज्यादा सुकून देती है कि राहत की………
साबुत और सलामत चेहरों, घरों, रिश्तों से तो ताबूत का रेखाचित्र उभरने लगता है, हे भगवान! यह कैसे कैसे विचार व्यक्त करने लगी हूं, किसी को भनक नही होनी चाहिए कि मेरे या फिर किसीके भी भीतर क्या गुफ्तगू हो रही है, वर्ना जीना दुश्वार कर देगें सब के सब, अजीब झूठ लिखा हुआ है पोथियों में सच बोलो, ज़रा जुर्रत तो करो, वहीं के वहीं गाढ़ देगें फिर लिए फिरना अपना ताबूत यहां वहां दो ढाई गज़ जमीन न जुड़ने देगा कोई,  है न मसखरों वाली बात पर एकदम सच्ची घटनाओं पर आधारित (हाहाहा) होठों के तेज धारदार कोनों से याद आया यह तो हूबहू मां का चेहरा,  है वही आंखें,  वही नाक, वैसे ही कान, बिल्कुल वैसा माथा क्या सारे का सारा मुखौटा चिपका है मेरे चेहरे पर, हूबहू जैसे वो ही जी जी रही हो कहीं ताबूत तो नहीं देख रही मैं? हाय राम! ओम नमोह शिवाय!  ओम नमोह शिवाय! तेज तेज  आवाज में उच्चारण करती हूं
कानो कान खबर नही किसी को, एक दो बार किसी ने तंज भी कसा था बिल्कुल मां जैसी! तो मैं थरा गई थी, वो थरथराहट आज भी है मुझको आर पार, चीरती हुई। शायद
तब से मैं मेरा चेहरा ढूंढती हूं, कहीं नहीं है, फाइन लाइन्स में हसीं की तिकोणों में भी कभी कहीं नहीं उभरती , चेहरे के नाम पर एक फोटोकॉपी जरूर है मेरे पास, जरूरत पड़े में चिपकाने के लिए।
मां कहती थी कि ऐसे अच्छा नहीं लगता, किसी के सामने उदास  हुआ मूंह ले जाना, चौड़ा सा माथा लिए फिरना, चौड़ाई में सब तैरने लगता है, जैसे कि आप नाखुश हैं या फिर किस्मत को कोसते हैं, रातों में जगते हैं बेवजह, या इंतजार में, कडवाहटें उभर आती हैं, ओर दाने लोग माथे से सब पढ़ लेते हैं भविष्य और  भूत दोनो ही, बस आप अपने आज का विवरण छुपा सकते हैं,  जुल्फों के कुंडलों में, तो ढका होना चाहिए माथा बालों से या चुन्नी से, आजकल ऐसा नही होता मेरा मतलब चुन्नी से है। नही मां चुन्नी नही माथे पर  बलों को उभार सब ढक लेती थी मैने देखा था, जो बात उसे न पसंद होती वो फट से एक डेढ इंच का बल बनाती और सामने वाला फुर्र हो जाता,  था हाहाहा, कमाल का हुनर था उस में,
मैं कभी ऐसा नहीं सीख पाई,  बड़ी लगन से सुनती थी सब को मैं, मां की तरह होशियार जो नही थी मैं, उसका रोअबदार चेहरा मेरे लिए चुनौती रहता है, दिखने में तेज तरार और मूल रूप से संवेदनशील होना विरोधाभास पैदा करते है, और विरोधाभास को जीना चुनौतीपूर्ण होता है। जैसे कि अब मेरे लिए हो चुका है।
अब चेहरा तो वही ले दे के एक ही हुआ न, या फिर  दो जनाना और  मर्दाना,  पूरा जीवन जिस से भागे भी तो किस से? अगर वो हूबहू आपके मूंह पर पक्के तौर पर छपा हो पक्के तौर पर, तो कोई कुछ नही कर सकता, चेहरा ही तकदीर लिखता है, कलम नही, खुद से घबराकर कोई कही नही जा पाता सिवाय अंधकार के, फिर  हिम्मत जुटा कर उठता है और फिर चेहरा चुनौती बना हुआ होता है। बेशक कोई नही पहचान पाता यह सब हीले वसीले आपके अपने होते हैं, आप खुद को कोसते रहे पर, चेहरे से चेहरा नौच नही सकते लेकिन, किस्मत की लकीर इसी को कहते हैं।
हां याद आया
करते कराते, धीरे धीरे मैं यानिकी, संदीप यह नाम सिर्फ कागज़ों पर ही था , अस्तित्व में नही, अस्तित्व समझ गए न आप, आप के जिन्दा होने का मियार वर्ना यहां से वहां झौल खाते फिरना या फिर अपनी ही होंद के लिए किसी के मुंह की तरफ झांकते रहना और फिर सामने वाला चाल चल देता है, बार बार वही चाल और आप चाह कर भी कुछ नही कर सकते, हां तो कहां थे हम! कामों पर
घर के सारे काम सीख गई,  हफ्ते में दो दिन गांव भेज देते अम्मा यानि की मेरी दादी के पास।  स्कूल से सीधा हर शुक्रवार को, सोमवार सुबह कोई न कोई स्कूल छोड़ जाता। बूढ़ी अम्मा बहाने से घर के काम  सिखाती तो बात बात में ताना कसती सीख ले अभी से, तेरी मां तो खासी शहरन ठहरी, न खाना बनाना आवे न कोई लाज शर्म! सिनेमे का घना पता है या संवरने का। तू न बनीयो मां जैसी।
ठीक है अम्मा!
अम्मा बहाने से वह सब सिखाए जा रही थी जो मेरी की मां ने जरूरी नही समझा। ब्याह के बाद भी नहीं, सोचा क्यूं न बड़ी बेटी को सब ताम झाम सिखाकर खुद ऐश करूं, जरा पती से भी तो वाही लूट लूंगी।  देखा बेटी तो ब्याह को तैयार कर दी, आठवीं कक्षा के बाद कभी भी हाथ पीले कर, भार सिर से उतार देंगे।
मुझे कुछ अटपटा लगने लगा थोड़ा-बहुत मां ओर अम्मा के तौर तरीकों में। वह ज्यादातर ध्यान होमवर्क में देने लगी। स्कूल में लडकियों से अक्सर सुनती रहती थी,  यही साल है स्कूल में अगले साल मेरे घर वाले पढ़ाई से हटा लेंगे। हर दूसरे दिन हर कोई इसी मुद्दे पर अटकी रहती थीं। ज्यादा से ज्यादा दसवीं तक रो पीटकर , इतने मार्क्स नहीं आए तो इसी साल छुट्टी ओर फिर शादी। टीचर्स को भी सब पता था इन लडकियों के घर-परिवारों की मानसिकता के बारे में, हालातों के बारे में भी, इसीलिए कोई तवज्जो नहीं देतो थीं। मुश्किल से आठ-दस क्लास तक पढ़ाई करने वाली लडकियों का यह दिल्ली को टच करता बस्ती का एकमात्र स्कूल था।
घर से लेकर स्कूल तक समझने लग पड़ी संदीप, मां ओर अम्मा के ताने से लेकर बाप की गाली-गलौज भी।
सब लडकियों की सब परेशानियों में उलझकर रह जाती रातभर, सुबह स्कूल में फिर यही वातावरण,  कुछ समझ नही पा रही थी।
इक दिन किसी ने पूछ ही लिया उसे भी, तेरी मां तो शहर से है, पढ़ी लिखी, हमारी मांऐ तो देहाती है अनपढ़ भी, तेरी मम्मी तो ऐसी बातें नही करती होगी। तू तो बी ए, ऐम ऐ तक पढ़ाई करेगी।
काश! हमारी मांऐ भी तेरी मां जैसी होतीं। हम भी पढ़ाई कर नौकरी का सोचते यार!!! टन टन टन घंटी बजी बातें बहुत हुई पूरा दिन आज स्कूल में।
घर पहुंचते -पहुंचते, मुझे कोई पगडंडी नजर आने लगी  थी। किसी ने ठीक वही कह दिया जो वह सुनना चाहती थी, एम. ऐ तक पढ़ाई…!!! सब से बड़ी कक्षा इतना ही समझती थी वह तब तक तो ।
खाना खाकर,  वह फटाफट पढ़ने बैठ गई। अंधेरा होने को था, मां सोकर उठ गई,  देखा न कोई चाय-वाय, न बर्तनों की आवाज
आग बबूला हो उठी!
महारानी! पोथीयां लेकर बैठ गई है, बर्तन कोन करेगा? आने दे जरा इनको तेरी पढ़ाई बंद कल से ही, स्कूल गई तो टांगे तोड़ दूंगी! खैर वो मेरी टांगे छोड़कर सब तोड़ती गई किसी बे लगाम गुरूर में,
मां पागल थी, और  मैं किसी और तरह से जुनूनी (हाहाहा)
फिर भी हमारी शक्ल सूरत काफी मिलती जुलती थी, क्योंकि थे तो हम दोनो कलबूत में जकड़े हुए भला दिखने में कलबूत तो एक से ही होते हैं, सभी सभ्यताओं में सबूत मिले हैं, लेकिन अंदर की राम कहानियां कौन जाने? क्या पता थोड़ा-बहुत अलग होंगी
क्यूंकि हम औरतों के लिए ही कोई न कोई कलबूत हर दौर में बनाए गए हैं।
मेरे मुताबिक तो दो तरह के होते होंगे और क्या कहेंगे आप इस पर? 
बस यही हिसाब किताब रातभर सोने नही देता और सब तो ठीक ठाक चल रहा है।

वंदना गर्ग।  

Dr. Vandana Garg is an Assistant Professor at the University Institute of Legal Studies, Panjab University, Chandigarh. She has a doctorate from the Department of English and Cultural Studies at Panjab University, Chandigarh, with a distinction in Linguistics. A notable researcher, her published research works, Harold Pinter: A Study of Cultural Memory (published in 2024)

 & Franz Kafka’s ‘The Trial’ explores the intersection of literature and law. (Published In 2023). She is a Delhi based writer, she has published her debut novel titled, ‘In the Twilight Zone’ in June 2024.

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