ग़मों का मारा बेचारा मासूम-सा ये जो दिल है।
अरमानों की इसने फिर से सजाई महफ़िल है।।
कुहासा-सा जिंदगी में आजकल बहुत है।
दूर बादलों में गा रहा कोई प्यारी-सी ग़ज़ल है।।
डर था जब समंदर की लहरों से इतना।
फिर क्यूँ, बना लिया साहिल सहारे घर है।।
पाँवों के छाले भी अब तो पूछते हैं बार-बार।
मंज़िल तक पहुंचने में आखिर कितना बचा सफ़र है।।
अक्सर चेहरे को छुपा लेती है देखकर मुझको।
“मन” नहीं रहा कभी इस ख़बर से बेख़बर है।।
©डॉ. मनोज कुमार “मन”