मसखरे हो चले हों लोग जहाँ के
मसखरेपन में ही हो जब सिंहासन
और मजाक में ही उड़ा दी जाती हों
जहाँ लोगों की समस्याएं दोनों तरफ से
नहीं हो किसी को भी जन-पीड़ा से कोई सरोकार
की जाती हों जब मीठी-मीठी बातें दोनों छोर से
और पिटवाई जाती हों उन्हीं से तालियाँ
और नचाया भी जाता हो उन्हीं को ही
जैसे कोई रिंग मास्टर नचाता है
“शेर” को हंटर के जोर पर सर्कस में
बताओ ऐसे नादान लोग कहाँ मिलेंगे
जो नहीं जानते हों अपनी ताकत को
जो नहीं पहचानते हों अपने ही लहू का रंग
जो नहीं जानते हों कब हंसना है, कब रोना है
जो नहीं जानते हों कितना हँसना है, कितना रोना
ऐसे मसखरे कहाँ मिलेंगें….?
© डॉ. मनोज कुमार “मन”