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मेरा मन

छाया चंहुं ओर अंधेरा है

 जन-जन को भय ने घेरा है

 धुआं धुआं सा तन मेरा

धधक रहा है मेरा मन।

माता की छाती छलनी है

पापा की पगड़ी उछली है

राक्षसों ने नोच-नोच खाया

कह रहा भारत मां का क्रंदन।

रोता है मेरा रोम रोम

चीत्कार करें पृथ्वी व्योम

हे धरती मां तू फिर फट जा

 नहीं सुरक्षित सीता आंगन।

बनवा लो लाखों चाहे मंदिर

 दुराचारी घूम रहे अंदर

 सूली पर नहीं चढ़ाओगे

 तो व्यर्थ है  मूर्ति पूजन।

कोई सती श्राप अब दे जाए

 जग कोख बंजर हो जाए

कलि काल नाश हो धरनी से

 नहीं शेष लहू में अपनापन।

चंडी बन जाए हर बाला

 पी जाए रक्त बीज प्याला

कृपाण चलाना अब सीखो

 बहुत किया चंदन वंदन।

सत्ता को कुर्सी दिखती है

 चिता पर रोटी सिकती है

 चुल्लू भर पानी में डूब मरो

 कर रही राजनीतिक नर्तन।

स्वरचित मौलिक अप्रकाशित

हेमलता राजेंद्र शर्मा मनस्विनी, साईंखेड़ा नरसिंहपुर मध्यप्रदेश

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