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माँ (कविता-2)

मार्टिन उमेद नज्मी

मैंने जमीं पे चलती फिरती ख़ुदा की अंजा देखी है ,

मैंने जन्नत नहीं देखी कभी मैंने अपनी माँ देखी है ॥

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बेटी की शादी में गरीबी सह विधवा माँ खर्चे को हिचकिचाती रही ,

वो ज़बां पर ख़ामोशी के ताले डाल इक इक रस्म-ओ -रिवाज निभाती रही !

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माँ जब सजदे मे होती है मेरे हक्क मे दुआ करती है ,

मर्ज मेरा ठीक हो रहा है ये नयी दवा निकली है ॥

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माँ का ऐसा कर्ज है मुझ पर ताउम्र हक्क अदा न कर पाऊंगा,

माँ मेरी ख़ुदा के सजदे मे ही रहती है जब तक घर न जाऊंगा ॥

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मेरे घर की कोई सरहद नहीं न ही कोई गलियारा होगा,

माँ बाप मेरे जिंदा है अभी जबतक न कोई बँटवारा होगा ॥

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दाने-दाने को मोहताज़ घर मे आज इक माँ है़ ,

बहू-बेटे कि आंखे दौलत के नशे मे जवां है़ ॥

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मेरे जीवन की नाव मुश्किल-ओ-परेशानी मे जब आती है ,

तभी मेरी माँ खुदा के सजदे मे बैठी मुझे नज़र मे आती है ॥

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माँ के हाथों कि वो गर्म रोटी चटनी ,

आग सेंकते जब जलता है चूल्हा

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वो माँ के हाथों क़ी मीठी सी सुगंध रोटियों मे ,

सांझ ढले जब आँगन मे जलता था तब चूल्हा॥

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माँ ने मजदूरी कर कैसेपाई पाई जोड़कर बेटे को पढ़ाया ,

नौकरी पाते ही बेटे ने घर से बूढ़ी माँ को खाली हाथों भगाया ॥

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हाल क्या बताऊँ माँ के आंखो मे आंशुओ की झड़ी है ,

सारी बातें भूल कर माँ तेरे जाने से भूखी प्यासी पड़ी है ॥

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माँ के जिग़र पर क्या टूटी कौन जान सकता है ,

परिवार बच्चे सुखी रहे माँ का दिल मानता है ॥

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बेटी की शादी में गरीबी सह विधवा माँ खर्चे को हिचकिचाती रही ,

वो ज़बां पर ख़ामोशी के ताले डाल इक इक रस्म-ओ -रिवाज निभाती रही !

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मार्टिन उमेद नज्मी

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