वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती सविता चडढा की कलम से
उनका नाम डी डी त्रिपाठी अर्थात धर्म ध्वज त्रिपाठी था। वे रायबरेली के विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे । पता नहीं कहीं उन्होंने मेरी एक कहानी किसी पत्रिका में पढ़ी थी और उन्होंने उस पर प्रतिक्रिया स्वरुप अपना पत्र मुझे लिखा था । कहानी उन्हें पसंद आई थी और उन्होंने मुझे अपनी को एक किताब उन्हें भेजने के लिए लिखा था। जब उनका पत्र मुझे मिला तो मैं बहुत प्रसन्न हुई । पत्र विश्वविद्यालय के लेटर हेड पर था। कुछ दिन के बाद मुझे फिर एक पत्र प्राप्त हुआ जिस पर मेरी किसी और रचना के बारे में उनकी प्रतिक्रिया थी और एक बहुत सुंदर आग्रह भी कि वह मेरी कहानियों पर अपने किसी विद्यार्थी से शोध कराना चाहते हैं । मेरे लिए यह अति प्रसन्नता की बात थी उसके बाद नियमित डीडी त्रिपाठी जी मुझे पत्र लिखते रहे । कोई भी त्यौहार चाहे गणतंत्र दिवस होता या होली, दिवाली, मकर संक्रांति और कोई छोटे से छोटा, कोई भी त्यौहार होता तो उनका एक पोस्टकार्ड मुझे मिलता जिसमें शुभकामना संदेश और आशीर्वाद के रूप में कुछ सुंदर वाक्य लिखे होते थे। उनके पत्र मैं संभाल कर रखती थी। मेरी आदत है पत्रों को संभाल कर रखना और आप तो जानते ही हो मेरी एक पुस्तक पत्रों की दुनिया प्रकाशित है जिसमें मैंने बहुत सारे पत्र शामिल किए हैं और उन सबको मैंने संभाल कर भी रखा हुआ है ।
1 साल हो गया जब त्रिपाठी जी से कोई पत्र नहीं आया तो मुझे बहुत हैरानी हुई। मुझे मैंने सोचा कि मैं खुद ही एक पत्र लिख दूं। मैंने डीडी त्रिपाठी जीके पते पर एक पत्र लिखा और पत्र लिखने के बाद मैंने एक वाक्य और लिख दिया कि यदि यह पत्र किसी और को मिले तो कृपया मुझे डीडी त्रिपाठी जी के बारे में सूचित किया जाए ।
मेरे मन में यह आशंका जरूर थी कि कहीं उन्होंने अपना घर बदल लिया होगा , अगर यह मेरा पत्र किसी और को भी मिले तो वह मुझे त्रिपाठी जी के बारे में सूचना दें । इस बीच उनका लघु शोध ग्रंथ मुझे मिल चुका था जो किसी चंदा देवी ने मेरी कहानियों पर किया था। बहुत ही विस्तृत और बहुत ही सुंदर तरीके से मेरी कहानियों पर उन्होंने काम करवाया था।
एक दिन मुझे त्रिपाठी जी के पुत्र का पत्र मिला उन्होंने ने लिखा था ” बहुत दुख के साथ उन्होंने मुझे सूचना दी थी कि अब डीडी त्रिपाठी जी इस दुनिया में नहीं रहे और पिछले साल इस संसार से विदा हो गए हैं।” मेरे लिए यह बहुत बड़ा आघात ।
अनुभव लिखने का तात्पर्य केवल इतना है कि मैं उस व्यक्ति को कभी मिली नहीं ,मैंने उनसे कभी बात नहीं की, उनकी तस्वीर भी नहीं देखी, केवल पत्राचार के माध्यम से मैं उनको जानती रही । उन्होंने मुझ पर इतना अनुग्रह किया जितना आज के युग में कोई किसी पर नहीं कर सकता । उन्होंने मेरी कहानियों पर शोध करवाया, मुझे बहुत सारे आशीर्वाद दिए और मैं उनको कई बार कहती रही कि जब भी आप दिल्ली आए मुझ से अवश्य मिले। लेकिन मैं कभी उनके दर्शन नहीं कर पाई लेकिन मैं आज भी ऐसी श्रेष्ठ और निस्वार्थ शख्सियत को बहुत ही श्रद्धा से और बहुत ही सम्मान से याद करती हूं।
सविता चडढा