(श्रीमती कविता मल्होत्रा )
लॉकडाऊन की अवधि के दौरान तमाम लोगों की सोच के अनुसार कई तरह के सँदेशों का आदान-प्रदान दिखा।
अधिकतर लोगों के बीच चर्चा का एक ही विषय था कि कोरोना वायरस मानव-निर्मित है या प्राकृतिक आपदा। इस प्रश्न के उत्तर में स्थित सबकी अपनी अलग सोच दिखी।
ज़्यादातर लोग, जो केवल एक भीड़ के हिस्से की तरह भेड़चाल में अपना जीवन व्यतीत करते हैं, वो तो केवल सुनी सुनाई बातों में उलझ कर ही लॉकडाऊन खुलने का इंतज़ार करते दिखे।
कुछ आरामपरस्त लोग तो छुट्टियाँ मनाने के मूड में दिखे, जिनकी दुनिया केवल खाने,सोने,मोबाइल,टेलीविज़न और ऑन लाइन शॉपिंग तक ही सिमट कर रह गई थी।न तो उन्हें घर परिवार के दायित्वों से कोई लेना-देना था और न ही अपने पड़ोस के सुख-दुख से।
कुछ लोगों को अपने कामकाज की फ़िक्र सता रही थी, जिसके बिना रोज़ी रोटी कमाना सँभव नहीं था।
कुछ लोगों को घर से काम करने की इजाज़त थी, जो घर के साथ-साथ अपने दफ़्तरी दस्तावेज़ों के भी रख-रखाव में मशगूल रह कर अपने दायित्वों का निर्वहन करते दिखे।
कुछ मौक़ापरस्त लोग, अवसरवादी राजनेताओें की तरह अपने व्यवसाय बढ़ाने के लिए ज़रूरतमँद लोगों को लुभावने ऑफ़र देकर मानसिक शोषण करते दिखे।
कुछ लोग अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार रोज़मर्रा की वस्तुओं के वितरण कर के सामाजिक कार्यकर्ताओं की श्रेणी में अपना नाम दर्ज़ करवाते दिखे।
कुछ गृहणियों का समय चूल्हों में तप कर पारिवारिक सेवार्थ निखरने लगा, तो कुछ शिक्षाविद हस्तियाँ भावी पीढ़ियों के निर्माण में अपना सहयोग देकर सम्मान पाती दिखीं।
लेखकों और कलाकारों ने अपने-अपने प्रस्तुतीकरण के मँच तलाश लिए।
बच्चे जो इस लॉकडाऊन अवधि में सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए, उनकी मनोस्थिति पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा।अपने बड़ों को मोबाइल और टेलिविज़न में व्यस्त देखकर बच्चों ने भी अपने मनोरँजन के लिए इन्हीं दो रास्तों को चुना जो उनके मासूम मानस को दोराहे पर ले आया, जिसके परिणामस्वरूप ब्वायज़ वर्सिस गर्ल्स लॉकर रूमज़ का उदय हुआ।हर कोई अपने अँतर्मन की सोच को बाहर उगलने में अधीर होता दिखा।
प्रकृति को अब तक तलाश है उन चयनित उम्मीदवारों की जो बाहर घटित इस घटनाचक्र का अवलोकन कर के अपने अँदर की ओर मोड़ सकें।
जहाँ केवल एक ही नूर से उपजी सारी सृष्टि के मूल उद्देश्य का ख़ज़ाना गढ़ा हुआ है।न तो वहाँ किसी राजनीति का चर्चा है न ही किसी भ्रष्टता का बोलबाला है।केवल समाज के उत्थान की दिशा है और परस्पर प्रेम से निःस्वार्थ कल्याण का मार्ग है।
बाहरी आडँबरों की चाहत से मुक्ति मिले तो ज़रा अँदर की ओर रूख़ करें।जहाँ किसी अक्षर,शब्द, वाक्य, व्याकरण और भाषा का अपमान न हो।जहाँ जीवित लाशों का कोई क़ब्रिस्तान न हो।
न मज़हब की दीवार हो
केवल सत्ता निराकार हो
जो है उसका आभार हो
जो मिला न निराधार हो
कल्याण भाव अपार हो
परस्पर प्रेम अपरँपार हो
न भावों का व्यापार हो
जुड़ा हर रूह से तार हो
निस्वार्थ हर कारोबार हो
नेक कमाई ही आधार हो
सहयोगी भाव दरकार हो
खत्म तमाम अनाचार हो
रच जाएँ एक इतिहास नया
हर ज़र्रा प्रेम से गुलज़ार हो