समीक्षक : मुकेश पोपली
दुनिया में अनेक तरह के मंज़र हम देखा करते हैं। कुछ मंज़र ऐसे होते हैं जो हम कभी भी दुबारा नहीं देखना चाहते। कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें हम बार-बार देखना चाहते हैं। हमारे जीवन में बहुत बार ऐसा भी होता है कि हम विभिन्न परिस्थितियों से गुजरते हुए कुछ मंज़र देखकर उनसे मुहब्बत करने लग जाते हैं। कुछ के बारे में हम यह सोचने लगते हैं कि अभी तक ऐसा कुछ दिखाई क्यों नहीं दिया? कुछ मंज़र हम हमेशा के लिए आंखों में बसा लेते हैं और उन्हें याद करते-करते हमारे दिल की आवाज़ कागज पर उतर जाती है और बन जाती है कुछ कविताएं, कुछ गीत और कुछ ग़ज़ल भी। इन्हीं सब को एक पुस्तक ‘मंज़र गवाह हैं’ में संकलित किया है एक बैंकर ने जो कि संजोग से एक कवि भी हैं और इनका नाम है यशपाल सिंह ‘यश’।
यह तय है कि विचार प्रत्येक व्यक्ति के दिल में आते-जाते रहते हैं। कुछ लोग उसे कागजों पर उतार देते हैं तो कुछ क्षण भर में बिसरा देते हैं। यश साहब अपने कार्यालय में अपने काम के साथ चलते रहे और जहां आवश्यक हुआ दो शब्द लिख भी डाले। पुस्तक के प्रारंभ में ही वह कह देते हैं कि कुछ ख़याल अंकित हो गए और कुछ उभरे और दबा दिये गए। जब सेवानिवृत्ति के पश्चात इन ख़यालों को पुस्तक का रूप दिया गया तो सारा श्रेय दिया अपनी धर्मपत्नी को-
मेरी सारी अभिलाषाओं का
कारण तुम
माध्यम भी तुम
और लक्ष्य तुम्हीं।
पुस्तक को मैं अक्सर पीछे की ओर से खोलता हूं, यह मेरी आदत में शामिल है। अब संजोग ही है कि कवि ने अपनी पुस्तक के शीर्षक वाली कविता सबसे अंतिम पृष्ठ पर ही दी है। ‘मंज़र गवाह हैं’ कविता में वह पाठकों को आगाह करते दिखाई पड़ते हैं-
गीतों में मेरे व्याकरण की शुद्धता न देख
मैंने किताब लिखी है शौक़ीन की तरह।
यह शेर इस ग़ज़ल का अंतिम शेर है। अब जब ढूंढा गया तो अशुद्धता दूर-दूर तक नजर ही नहीं आई। इतना अवश्य पता चल गया कि पुस्तक में कुल 71 कविताएं हैं जो विभिन्न आकारों और प्रकारों में सिमटी हैं। विविध रंगों और विषयों से युक्त इन कविताओं में राजनीतिज्ञों पर कटाक्ष भी किए गए हैं। ‘इस याद’ (59) ग़ज़ल का यह शेर देखिए-
फिर से जनता के पास जाना है
तो इंतज़ाम याद आया है।
यह सब क्या है? हम एक आम आदमी की हैसियत से सोचते हैं और अनायास ही सबके काम करने का बीड़ा उठा लेते हैं लेकिन यह नेता सिर्फ वोट के समय ही हमारे सामने आते हैं। ऐसा ही एक खूबसूरत शेर जो कि ग़ज़ल ‘अभी बाक़ी है’ (50) का एक हिस्सा है, सत्ताधीशों की कलई खोलता हुआ दिखाई देता है-
जिनके हाथों में है सत्ता का बटन
उनसे भी डील तो करना होगा।
कवि राजनीति करने वालों पर तंज़ कसने से कहीं भी बाज नहीं आता है। उनके गिरगिट की तरह रंग बदलने पर वह ‘फ़ासले’ (17) में कहता है-
हैं हितेषी वो तुम्हारे गमों में शामिल हैं
मगर सत्ता में जब आएंगे, बदल जाएंगे।
‘अजब मुश्किलें’ (6) में वो इन राजनेताओं पर कटाक्ष करते हुए कह उठता है-
वोटों के गणित ने उन्हें मजबूर कर दिया
प्रतिद्वंद्वी कल तलक के रिश्तेदार हो गए।
इसी तरह कवि नेताओं के वादों और इरादों पर विश्वास नहीं करता। जरा ‘हक़ीक़त’ (16) ग़ज़ल का यह शेर देखिए-
एक नई बोतल में भरकर बेचने निकले वो फिर से
लोग हैं कि फिर उन्हीं वादों में फँसते जा रहे हैं।
केवल राजनीति ही नहीं, समाज में फैली असमानताओं, बुराइयों, द्वेष, क्रोध को लेकर भी कवि चिंतित है। कवि को हिंसा से नफरत है और उन लोगों को वो सीधा सा संदेश दे रहा है जो राष्ट्रभक्ति के नाम पर सारे क़ानून और मर्यादाएं तोड़ते नजर आते हैं-
ये आसमान में सूराख के काम आएंगे
पत्थरों को यूँ ही नाहक न उछालो यारों। (आक्रोश 23)
कवि जानता है कि इस देश में रहने वाले हिंदू-मुस्लिम के दंगे अपने आप नहीं भड़कते, उन्हें भड़काया जाता है। तभी तो उसकी लेखनी ‘और कहीं न बने दादरी’ (7) चिंता करती है और यह चाहती है कि इस राष्ट्र की एकता पर आंच न आने पाए, इसके लिए हमें सावधान रहना होगा-
हिंदू-मुस्लिम एक ख़ून हैं
एक मिट्टी के जाये हैं।
वैसे कपड़े पहन लिए
जिसको जैसे पहनाए हैं।
मज़हब के कपड़ों का रंग
ना ख़ून से गहरा हो जाए।
और कहीं न बने ‘दादरी’
इस पर पहरा हो जाये।
कवि चाहता है कि देश में खुशहाली रहे और सीमा पार वालों से हमारे रिश्ते मधुर बनें जिससे देश में अमन हो और चैन हो। ‘सरहद के उस पार भी’ (8) में कवि लिखता है-
कोई दीवार न सरहद इसमें
आसमान यहाँ भी है, वहाँ भी है।
कवि चूंकि आशावादी होता है इसलिए वह दोनों तरफ बराबर तौलता है और बोलता है-
ये बुरा दौर है थमेगा ज़रूर
अच्छे इंसान यहाँ भी हैं, वहाँ भी हैं।
आम तौर पर यह देखा जाता है कि कवि अक्सर अपनी प्रशंसा करता है लेकिन यहां पर लेखक इस धारणा के विपरीत अपने आप को भी एक आम इंसान मानता है और भीड़ में खुद को भी शामिल कर लेता है। उस साधारण इनसान की चिंताएं, सपने और इच्छाएं स्वयं पर भी लागू करता है। ‘सुर्खियां’ (3) में कवि कहता है-
सुर्खियां अख़बार की मुझको डराने लग गई हैं
नींद से रातों को आकर के जगाने लग गई हैं।
एक अन्य स्थान पर वह इस बात का भी अहसास रखता है कि परिस्थितियाँ चाहे कितनी ही बदल जाएं, इनसान को स्वयं पर घमंड नहीं करना चाहिए-
अंदाज़ मालिकों के कभी सीख न सके
पूरी ही उम्र हम किरायेदार रहे हैं। (अहसास 2)
लेखक आम आदमी की तरह खुद को ही हास्यपात्र बनाने से नहीं चूकता। ‘अपने हाथों’ (34) में समस्त शेर इसी प्रकार के हैं। उसमें से एक यह मोती देखिए-
आज ही छतरी घर पे भूल आये
आज आकाश में घटाएँ हैं।
लेखक अपने समाज को लेकर भी जागरूक है। ‘सब ठीक चल रहा है’ (42) शीर्षक से एक लंबी कविता में कवि कहता है-
वो पूछते हैं
कैसा चल रहा है?
और मैं मुड़कर देखता हूँ
अपनी निराशाओं को
स्वास्थ्य की समस्याओं को
परिवार के तनावों को
रिश्तों में रोज़ आते
उतराव और चढ़ावों को
सामाजिक और राजनैतिक परिदृश्य से
पैदा होने वाली अभिलाषाओं
और हताशाओं को
और फिर अनमने भाव से
देखता हूँ उनकी ओर
और बोल देता हूँ
‘बस ठीक है’
‘समय गुज़र रहा है’
या ऐसा ही कुछ और।
कवि जानता है कि अगर इरादे बुलंद हो, हृदय के भीतर इच्छाशक्ति हो तो कोई भी काम मुश्किल नहीं है। इस दुनिया में सब-कुछ हमारी मुट्ठी में है और संभावनाओं की कोई कमी नहीं है। उनकी कविता ‘संभावना’ (22) का प्रत्येक छंद उत्साही है-
जरा संभावनाओं में
उतरकर के तो देखो।
आदमी हो
तुम नहीं बस एक सफ़र
जन्म से मृत्यु
बस इतना ही नहीं
तुम एक प्रतिभा
एक बड़ी संभावना।
एक कवि को जितना प्यार इस समाज से होता है, उतना ही प्यार वह अपनी रचनाओं से करता है। वह जानता है कि जो लिखा गया वही असर करेगा। एक शेर का अंदाज़ देखिए-
मैं घाव नहीं चाहता किसी भी ज़िस्म पर
गीतों का मरहम इसलिए लगा रहा हूँ मैं। (आईना 5)
ऐसे ही खूबसूरत शेर और छंद इस संग्रह में जगह-जगह देखने को मिल जाएंगे-
अहसास को, जज़्बात को सीने में लिए हम
देखा किये जो भी दिखे अच्छे-बुरे करम
कागज़ को हमने अपना हमज़बां बना लिया
मंज़र गए बदलते और लिखती गई क़लम। (नज़रिया 65)
कवि जानता है कि जीवन में बहुत से मोड़ आते हैं क्योंकि हर वय में, हर स्थान पर, हर रिश्ते में अलग-अलग आचार-व्यवहार तय होता है। सबको खुश रखना एक साधारण इनसान के हाथ में नहीं है और न ही वह किसी से अनावश्यक बैर रखना चाहता है। ज़िंदगी जब तक समझ में आती है तब तक ज़िंदगी हमारे बस में नहीं होती। जो कवि हृदय होता है वह कभी भी चापलूस नहीं हो सकता, ऐसा कवि का मानना है। इन्हीं सब अहसासों के साथ कवि ने अपनी कल्पना, देखी गई वास्तविकता और महसूसा हुआ दर्द अपनी रचनाओं में उतारा है।
‘रिश्ते’, ‘किरदार’, ‘खौफ़’, ‘नया दौर’, ‘कशिश’, ‘अभिलाषा’, ‘अहमियत’, ‘कलाम बना दे’, ‘हिंदी का मौसम’, ‘मायने बदल गए’ आदि रचनाओं को पढ़कर एक आनंद की अनुभूति भी होती है और एक नई सोच की राहें भी खुलती हैं। अंत में उनकी एक कविता ‘स्वभाव’ (43) का एक अंश जो हमें बताने में सफल है कि किसी को भी पहचानने के लिए उसके स्वभाव को जानना बहुत आवश्यक है-
कुछ ऐसे पेड़ भी हैं जिन्हें
न किसी ने बोया न सींचा
जो अपनी मर्ज़ी से खड़े हैं।
न कोई ख़्वाहिश न तमन्ना।
यशपाल सिंह ‘यश’ का यह संग्रह बहुत मेहनत से तैयार किया गया है। कवर पृष्ठ पर संसद भवन, सुरक्षा व्यवस्था, प्रकृति और आंदोलन से जुड़े चित्र हैं जो कि इसे इसके शीर्षक से जोड़ते हैं। लेखक को अनेकानेक शुभकामनाएं।
पुस्तक: मंज़र गवाह हैं
विधा : कविता
मूल्य : 200 रुपए
प्रकाशन : अनुराधा प्रकाशन, नई दिल्ली
मुकेश पोपली
सी-41, दूसरा तल, विकासपुरी नई दिल्ली-110018 मोबाइल: 7073888126 ई-मेल: swarangan38@gmail.com
समीक्षक परिचय
परिचय
नाम : मुकेश पोपली
जन्मतिथि : 11 मार्च 1959 (बीकानेर)
शिक्षा : एम कॉम, एम ए (हिंदी), जनसंचार एवं पत्रकारिता में स्नातकोत्तर
प्रसारण : आकाशवाणी बीकानेर से रचनाओं का प्रसारण
प्रकाशन : कहीं जरा सा…(कहानी संग्रह) (राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर), जनसत्ता, इंद्रप्रस्थ भारती, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, विभोम स्वर, अट्टहास, व्यंग्य यात्रा, मधुमती, दैनिक नवज्योति, प्रयास, दिल्ली प्रेस, अक्षरा, शब्दांकन, साहित्य समर्था, साहित्य लोक, अमर उजाला, कलमकार, कलीग, हिंदी ज्ञानवेणी, इंदौर समाचार आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
‘हमसफ़र’ नाम से एक लघुकथाओं का दस्तावेज प्रकाशनाधीन।
संप्रति : भारतीय स्टेट बैंक से राजभाषा अधिकारी के पद से सेवानिवृत्ति पश्चात स्वतंत्र लेखन
स्थाई पता: मुकेश पोपली, ‘स्वरांगन’, ए-38-डी
करणी नगर, पवनपुरी, बीकानेर-334003
वर्तमान पता : मुकेश पोपली, सी-41, दूसरा तल, विकासपुरी, नई दिल्ली-110018 मोबाइल: 7073888126
ई-मेल : swarangan38@gmail.com