इंसान अपना मूल धर्म, इंसानियत खो रहा है।
जातिवाद का जहर रगों में सरपट दौड़ रहा है।।
खुलम-खुला व्याभिचार और सब कुछ तो हो रहा है।
फिर भी, आजकल सुन रहा हूँ के “विकास” हो रहा है।।
अब तो राष्ट्रवाद को विचारधारा की गर्म और तेज आंच पर पकाया जा रहा है।
मीडिया ट्रायल में ही दोषी को बचाया और निर्दोष को फसाया जा रहा है।।
आज हर कोई अपने अपराधों को गर्वीले पर्दों की आड़ में छुपा रहा है।
देश-सेवा, धर्म, संस्कृति और परम्पराओं के नाम पर “लोकतंत्र” को भटका रहा है।।
आप का चुना हुआ नेता रातोंरात ख़ास हो रहा है।
शास्त्रीजी-सा जीवन न जाने कहाँ खो रहा है।।
धीरे-धीरे भर रहे घावों पर कोई सुइयाँ चुभो रहा है।
शहीदों को चिताओं पर, अब नेता, “राजनीति के बीज” बो रहा है।।
हर कोई अब सिद्धांतों को किताबी और अव्यावहारिक बातें कह रहा है।
रिश्तों की अदायगी में भी आदमी, अब तो प्रेक्टिकल हो रहा है।।
21 वीं सदी के डिजिटल दौर में छोटी-छोटी बातों पर आपा खो रहा है।
देखकर चाल-चलन तेरा जमाने, हैरा आज “मन” हो रहा है।।
© डॉ. मनोज कुमार “मन”