चेहरा उसका शगुफ़्ता सा गुलाब लगे है
उजली शब का वो मुनव्वर माहताब लगे है l
जब भी देखा है उसे तारीकियों से लड़ते
वो फ़लक पर इक चमकता आफताब लगे है l
क्या करें तारीफ़ हम उस जल्व ए जाना की
सिर से पाँ तक जो ग़ज़ल की इक क़िताब लगे है l
सब बताना तो नहीं मुमकिन जुबानी कह कर
ख़ामुशी हर बात पर उस का जवाब लगे है l
हो रहा तारी नशा सारे वज़ूद पे उस का
ज्यों फ़िज़ाओं में घुली कोई शराब लगे है l
उजली शब में आसमाँ पर अभ्र का इठलाना
चाँद के रुख़सार पर बेज़ा हिजाब लगे है l
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अजय कुमार पाण्डेय