छोटे-छोटे पाउच में बाजार में अंधाधुंध बिकने वाला गुटखा, खैनी, पान मसाला बड़े चाव के साथ खाया जाता है। भारत में तो जिसको देखो, गुटका खाया और सड़क पर थूका। सड़कों पर तो थूकने वाले अपनी बापौती समझते हैं। समझे भी क्यों ना? आखिर गुटका खरीदने के लिए पैसे भी तो खर्च किए हैं।
भारतीय संस्कृति का स्तर दिन प्रतिदिन गिराया जा रहा है। मुंबई फिल्म सिटी के बड़े-बड़े अभिनेता जो जनता के रोल मॉडल बनते हैं, खुलकर तंबाकू का प्रचार प्रसार करते नजर आते हैं।
इनका तो सीधा का फलसफा है अपनी जेब बनानी। जनता चाहे मरे तो मरे।
गुटका खाने वाला व्यक्ति इसके दूरगामी घातक परिणाम से अनभिज्ञ बना रहता है। तंबाकू के प्रत्येक पाउच पर चेतावनी लिखी होती है। मौत से भी बर्बर चित्र अंकित होता है। लेकिन फिर भी व्यक्ति नहीं चेतता।
आज भारत में तंबाकू मुंह और गले के कैंसर का मुख्य कारण है।
जब कोई परिवार इसकी चपेट में आता है वही जान पाता है। क्षणिक आनंद देने वाला तंबाकू परिवार की खुशियाँ कैसे लील जाता है।
बहुत से घर तो ऐसे होते हैं जहां खाने को रोटी भी पैदा ना होती है। तंबाकू से रोग पीड़ित व्यक्ति के इलाज के लिए पैसे कहाँ से आए?
सबसे बड़ा सवाल यह है जब यह तंबाकू इतना हानिकारक है तो इसकी फैक्ट्रियां इतने सुचारू रूप से कैसे चल रही है?
कौन इसके लिए जिम्मेदार है? सरकार, फैक्ट्री मालिक या सेवन करने वाले व्यक्ति।
तंबाकू सेवन के हानिकारक दुष्प्रभावों को देखते हुए इसको निषेध घोषित कर दिया जाना चाहिए। यह अर्थव्यवस्था में सहयोग तो करता है पर मानव जन की क्षति का भी मूल कारण हैं।
स्वरचित मौलिक
प्राची अग्रवाल
खुर्जा उत्तर प्रदेश