राजनीतिक सफरनामा
राजनीति तो वायदों का ही खेल है । ऐसा हो ही नहीं सकता कि कोई राजनीति करे और वायदा न करे और फिर चुनावों में….चुनावों में तो वायदे पानी की तरह बहते दिखाई देता है, वह चुनाव चाहे सरपंच का हो या लोकसभा का । इतने वायदे किए जाते हैं कि वायदा करने वाला खुद भी भूल चुका होता है कि उसने कब कौन सा वायदा कहां और किन के लिए क्या । चुनावी तुफान में वायदों की बयार तो बहती ही है और तूफान के गुजर जाने के बाद वायदें भी हवा हवाई हो जाते हैं । पर इस बार ऐसा नहीं हुआ । कुछ वायदे लोगों को याद रह गए और वे वायदा पूरा कराने के लिए कांग्रेस के दफ्तर पहुंच गए । अब भले ही यह सारा प्रायोजित हो पर हुआ तो है । वैसे नागरिकों को इतना जागरूक तो होना ही चाहिए कि वे वायदा निभाने के लिए दबाब बनायें । वैसे सच तो यह भी है कि वायदा की पूर्ति की सत्ता की कुर्सी मिल जाने के उपरांत होती है । अब यदि आपको कुर्सी मिल गई तो वायदा निभाओ पर जिन्हें नहीं मिली वे वायदा कैसे निभायेंगें । चुनावी वायदे और चुनावी घोषणापत्र दोनों लालीपाप का काम करते हैं । इन्हें देखकर और सूंघकर मन तो ललचाता है पर ‘‘अंगूर खट्टे हैं’’ के भावों के साथ ललचाया मन अगले वायदा को सुनने के लिए लाइन में लग जाता है । वायदों से पेट भले ही न भरता हो पर वायदों से मन जरूर भर जाता है । ऐसा भी नहीं है कि हर कोई वायदा नहीं निभाता जो दो नम्बर के काम करते हैं वे वायदा निभाने के एक्सपर्ट होते हैं । नीट परीक्षा में पास होने के लिए उत्सुक छात्रों से दलालों ने वायदा किया और निभाया भी । वायदा किया कि वे प्रष्नपत्र पहले ही बता देंगें और उनका उत्तर भी समझा देगें तो उन्होने अपना वायदा पूरा किया । भले ही इसमें हजारों ईमानदार छात्रों के सामने अपने भविष्य को लेकर प्रष्नचिन्ह लग गया हो । नीट परीक्षा को लेकर लगातार खुलासे हो रहे हैं और हर बार यह महसूस किया जा रहा है कि कितना भी मजबूत सिस्टम बना लो जिनको तोड़ना है वह तोड़कर ही रहेगा । वैसे भी हर साल लाखों बेरोजगार पैदा हो रहे हैं और उनके लिए मुट्ठी भर सरकारी नौकरियां होती हैं उनमें भी जुगाड़ू अपनी जुगाड़ से सेंधमारी कर लेते हैं तो फिर वास्तविक हकदारों के हाथों में केवल चिल्लाना ही रह जाता है । नीट परीक्षा की कोचिंग लाखों रूपयों में होती है, मध्यमवर्गीय परिवार अपनी संतान के सुनहरे भविष्य की उम्मीद में यह दांव भी लगा लेता है और बच्चे भी मेहनत करते हैं पर सेंधमारी वाले उनके सामने अंधकार खड़ा कर देते हैं । नीट परीक्षा में बेईमानी के चलते पिछड़े बच्चों के बिलखते परिजन और गुस्से में बच्चे निष्चित ही इस देष की अच्छी तस्वीर तो नहीं दिखा रहे हैं । अब मुष्किल यह है कि परीक्षा स्थगित की जाए तो भी बच्चों का भविष्य खराब होगा और न की जाए तो भी । सरकार भी ऐसे ही असमंजस की षिकार है । वैसे भी यह इकलौती परीक्षा नहीं है जिसके पेपर लीक होने और उनमें तथाकथितों की बेइमानी में शमिल होने की खबरें सामने आई हैं लगातार प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रष्नपत्र लीक हो रहे हैं और अपने सुनहरे भविष्य की आस लिए बच्चे अपने भष्यि की अध्ांकारमय होते जाने से पीड़ित हो रहे हैं । सरकार ने तो बोला था कि अब ऐसा नहीं होगा वह आगे भी ऐसा ही बोलेगी पर हम तो पूछेगें ही न ‘‘कया हुआ तेरा वायदा…’’ । दिल्ली को भी सपने दिखाए गए थे सपने हकीकत में बदलते भी दिख रहे थे पर एकाएक नई शराबनीति का जिन्न सामने आकर खड़़ा हो गया ‘‘क्या हुक्म है आका…….’’ । आप पार्टी का इस शराबनीति में सब कुछ तबाह हो गया । आप पार्टी के बड़े-बड़े नेता जेल चले गए खुद मुख्यमंत्री भी जेल में हैं और वे कब तक वहां रहेगें कोई नहीं जानता ऐसे में दिल्ली के हालत तो खराब होगें ही हो भी रहें हैं तो दिल्ली की जनता तो पूछेगी ही ‘‘क्या हुआ तेरा वायदा….’’ । अरविन्द केजरीवाल कितनी भी सफाई दें पर अब उनकी सफाई काम में नहीं आ रही है कि उन्हें जबरन ही जेल भेजा गया है, एक झूठ का जितनी ज्यादा बार बोलेगे तो वह एक समय सच ही लगने लगेगा । यदि अरविन्द केजरीवाल यह मान रहे हैं कि उनके साथ झूठ-झूठ का खेल खेला जा रहा है तो भी अब दिल्ली की जनता उन पर भरोसा कर कहां रही है यदि कर रही होती तो लोकसभा चुनावों में उनके एकाध प्रत्याषी को जिता देती । आप पार्टी ने नारा ही दिया था ‘‘जेल का जबाब बैलेट से’’ पर उन्हें इस नारे का कोई फायदा नहीं मिला । सलाखों के पीछे से झांकते अरविन्द केजरीवाल की फोटो भी कोई संवदेना नहीं जगा पाई । अरविन्द केजरीवाल अभी भी मुख्यमंत्री हैं, जेल में रहते हुए मुख्यमंत्री हैं जो नैतिकता के आधार पर तो नहीं रहना चाहिए भले ही उन्हें गलत फंसाया गया हो । झारखंड के मुख्यमंत्री ने तो अपनी स्तीफा दे ही दिया था पर इन्हेने नहीं दिया, यह लोकतंत्र के इतिहास में अनोखा ही मामला है । जो भी हो पर दिल्ली की जनता तो पूछेगी ही ‘‘क्या हुआ तेरा वायदा…..’’ । नई लोकसभा का सत्र भी प्रारंभ हो गया है और नए लोकसभा अध्यक्ष का चुनाव भी हो गया है ‘‘हम संसद को मिलजुल कर चलायेगें’’ के वायदे के साथ पर ऐा हुआ ही नहीं लोकसभा अध्यक्ष के पद के लिए यह जानते हुए भी कि विपक्ष के पास इतने सांसदों का समर्थन नहीं है कि वो अपने प्रत्याषी जिता सकें उन्होने प्रत्याष्ी खड़ा किया और एक मिनिट में ही उनका प्रत्याषी पराजित भी हो गया । इस एक मिनिट में विपक्ष क्या सिद्ध करना चाहता था यह किसी की समझ में नहीं आया । कई लर्ड़ायों केवल दिमाग से ही लड़ी जाती हैं । यदि इस लड़ाई को भी ऐसे ही लड़ा जाता तो विपक्ष कुछ हासिल तो कर ही लेता, पर वह कुछ हासिल नहीं कर पाया । विपक्ष के सामने चुनौती है कि उसे इस बात का ध्यान रखना है कि उसे देष के मतदाताओं के बीच संघर्षषील होने की छवि बनाना है, केवल सत्तारूढ़ दल का अकारण विरोध कर ऐसी छवि नहीं बनाई जा सकती । आखिर विपक्ष से भी तो जनता पूछेगी ही ‘‘क्या हुआ तेरा वायदा…’’ और जबाब भी विपक्ष को ही देना है, वे धिसटते-घिससटते जिन आंकड़ों तक पहुंचे है कम से कम इन आंकड़ों से पीछे न हो जायें इस बात का भी ध्यान तो रखना ही पड़ेगा । वैसे भी दस साल सत्ता में रहकर सत्तारूढ़ दल राजनीति करना सीख चुका है और राजनीति काम ही होता है कि ‘‘कैसे भी पटखनी दो’’ । लोकसभा अध्यक्ष के चुनाव में तो पटखनी दे दी पर अभी तो लड़ाई लम्बी चलने वाली है, तो हर बार न तो विपक्ष पटखनी खा सकता है और न ही सत्तारूढ़ दल इतनी बरी तरह पराजित होता रह सकता है । कई ऐसे मुद्दे आयेगें जब सत्ता को भी जबाव देना होगा आखिर उसने भी तो वायदा किया है ‘‘कया हुआ तेरा वायदा…..’’ । सत्तारूढ़ दल निष्चिन्त होकर शासन करने की स्थिति में नहीं है । वैषाखियों का संतुलन उसे बनाने में दिक्कत पैदा करता है जो हमेषसा बगैर वैषाखी के चला हो । जो वैषाखी सत्तारूढ़ दल के पास है उनसे भी तो उन्होने वायदा किया है वे भी तो पूछेगें ‘‘क्या हुआ तेरा वायदा….’’ वे जब भी ऐसा पूछेंगें तो यह मान लो कि खतरे की घंटी बजनी सुनाई देने लगी है । बिहार की जनता के सामने जब भी वहां के नेता पुल बनाने का वायदा करेगें तब ही जनता के सामने एक ही बरसात में ढह जाने वाले पुलों की तस्वीर अवष्य ही होगी । वहां साल भर पुल बनाए जाते हैं और बरसात के एक ही झटके में वे ढह जाते हैं । इस बार तो लगातार तीन पुल ढह गए । फिर बाकी दिन आम जनता बगैर पुल के अपनी जिन्दगी घरसीटती रहती है । यदि एक बार किसी पुल के ढहने पर कठोर कार्यवाही कर दी होती तो पुलों का यूं ही ढहना कभी नहीं होता । पर हर बार जब भी पुल यूं ही पानी को अपना समर्थन देकर अपने आपको माटी में मिला लेते हैं तब ही ‘‘क्या हुआ तेरा वायदा…..’’ का सीन आखों के सामने उभर आता है । कौन सी डिजाइन होती है और कौन सा समान लगाया जाता है जिसका पानी के साथ बैर होता है । अब तो शक पैदा होने लगा है कि पुल बनाने में काई सामान लगाया भी जाता है कि नहीं ‘‘क्या करोगे मटेरियल बरबाद कर जब पुल को ढह ही जाना है’’ ऐसा सोचकर ठेकदार मटेरियल ही न लगाता हो । सही भी है जिसे मिट्टी में मिल ही जाना है उसमें क्यों मेटिरयल बरबाद करो । सरकार ज्यादा से ज्यादा जांच बैठायेगी । एक बार बैठी जांच फिर कब खड़ी होगी कोई नहीं जानता । जांच चलती रहती है कई-कई्र सालों तक और कभी जांच अपनी रिपोर्ट दे भी दे तो रिपोर्ट फाइलों में सुस्ताती रहती है । सरकार हर बार ‘‘कठोर कदम’’ उठाने की चेतवानी देती है और हर बार कठोर कदम उठाकर वह अपने बाजू में ही रख देती है । अयोध्या में हुउ बहुत सारे निर्माण कार्य भी बरसात को नहीं झेल पाए । करोड़ों रूपया खर्च किया गया पर बरसात ने उनकी जिल्द उतारकर रख दी ‘‘कया हुआ तेरा वायदा…….’’ । जल्दबाजी में निर्माण मजबूत नहीं हो पाता और मजबूत निर्माण करने की ठेकेदार की इच्छा नहीं होती । उसे बिल चाहिए और सरकार को निर्माण कार्य की फोटो । फोटो फाइलों में लगा दी जाती है ताकि सनद रहे कि यहां कुछ निर्माण कार्य हुआ था । अब जनता का क्या है वह तो पूछेगी ही ‘‘क्या हुआ तेरा वायदा…’’