दिनांक– बारह दिसम्बर दो हजार तेइस।–नवभारत टाइम्स मे 'द स्पीकिंग ट्री' के अन्तर्गत श्री जे. कृष्णमूर्ति
के कुछ विचार पढ़े जिन्होंने मुझे सोचने को प्रेरित करते हुए बहुत हद तक सहमत होने पर विवश किया।
उनके विचार सत्य की खोज पर आधारित थे । उन्होंने इस बात पर विशेष बल दिया कि सत्य की खोज
जीवन के व्यापारों में निर्भयता का समावेश कर देने अथवा इस उद्येश्य से पारंपरिक सोचों और पारंपरिक
व्यवहारों को मात्र नकारते हुए जीवन को आदि से अंत तक जी लेने से नहीं होती। , यद्यपि सत्य की खोज के
लिये परम्परांओं, रूढ़ियो और तद्जनित विश्वासों के प्रति किंचित अविश्वासकी भावना रखनी भी आवश्यक
होती है ,क्योंकि ये परम्पराएँ जीवन में कदम कदम पर भय पैदा करती हैं ।और, भय के साये में सत्य को
पहचानना असंभव होता है। अतः निर्भय होना आवश्यक है और इस निर्भयता को प्राप्त करने के लिए
वैज्ञानिक तर्कों का सहारा लेना भी आवश्यक है। किन्तु सत्य की खोज यहीं समाप्त नहीं हो जाती ।निर्भयता
तो प्रथम सोपान है जो स्वतंत्र चिंतन की ओर प्रेरित करती है ।
यह सत्य है कि जीवन में स्वतंत्रता का सर्वाधिक महत्व है।जन्म से लेकर मृत्यु तक एक ऐसे वातावरण में
जीना ,जो सर्वथा भयहीन हो। मनुष्य के भौतिक विकास के लिए भी यह उतना ही आवश्यक है जितना
जीवन में सत्य की खोज के लिए।एकऐसी स्वतंत्रता जिसमें वह जीवन की समस्त प्रक्रियाओं को समझ
सके।वह अपने लिए सत्य की खोज कर सके।इस विशाल दुनिया के मानव जीवन से सम्बद्ध सभी क्षेत्रों का
सत्य । उन अनेकानेक सत्यों को जानकर ही सम्भवतःमानव चरम सत्य की ओर उन्मुख होगा।उस सत्य को
प्राप्त करने के लिये उसे परम स्वतंत्र होना होगा। वह ऐसा सत्य होगा जो आत्मानुशीलन से प्राप्त हो और
वाह्य प्रभावों से मुक्त हो। समाज, परिवार, वातावरण आदि की समस्त अवधारणाओं को दरकिनार
कर,उन सबके प्रभावों से अपने को मुक्त कर अपने इर्द गिर्द एक निर्भय दुनिया बना दुनिया के भौतिकता
जन्य प्रभावों एवं राजनीतिक प्रभावों से मस्तिष्क को दूर कर ले।मात्र शक्ति की खोज में लगी दुनिया की
कारगुजारियों से अपने को विलग कर , अस्त्र शस्त्रों के महाप्रदर्शन, एवं जीवनशैलियों की प्रतिस्पर्धा जनित
युद्धों से स्वयं को विरत कर अपने अन्तरतम में जीवन सत्य की खोज करनाही तब मानव जीवन का उद्येश्य
होगा।
उपरोक्त सारी विवेचनाओं के पश्चात भी एक प्रश्न शेष रह ही जाता है कि क्या सत्य की खोज हो भी सकती
है? वस्तुतः बड़े बड़े दार्शनिक भी उस प्रश्न का उत्तर देने में असमर्थता जताते हैं कि सत्य की परिभाषा क्या
है, ,अथवा उसका स्वरूप क्या है जिसकी खोज की जा सके।किन्तु बह रूपहीन सत्य तो अकथ्य है। वह पूर्ण है
अतः निःशब्द भी है। उसका अनुभव किया जा सकता है,उसे कहा नहीं जा सकता।बड़े बड़े दार्शनिकों ने भी
उसे ऐसे ही समझा है । वह शब्दातीत है।शब्दों में निहित अर्थों के अनुभूतिजन्य साक्षात् में ही सत्य निहित
है। सत्य अपने भीतर है। वह कल्पनातीत की कल्पना में है।उसका वाह्य स्वरूप नहीं है। यह आत्मज्ञान से
जुड़ा है।इसी रूप में इस सत्य की खोज जीवन के हर क्षेत्र में दिशा प्रदान करती है ।सत्य की खोज तो
अन्तरात्मा को जगाने की क्रिया है जिससे विश्व की सभी समस्याओं का निदान संभव है।यह एक बोधगम्य
प्रक्रिया है ,किन्तु सामान्य मानस को इसओर प्रवृत्त करने के लिये इसे उद्घाटित करने के प्रयत्न मे समस्त
आध्यात्मिक साहित्य भरा पड़ा हैं।
इतना ही नहीं , जीवन और विश्व विकास के जितने क्षेत्र हैं,सामाजिक आर्थिक वैज्ञानिक अथवा अन्य
कोई भी, उन सब का एक दार्शनिक पक्ष है जो तत्सम्बन्धित सत्य की खोज कर उसे परम सत्य से जोड़ने का
प्रयास करता है।मानव जीवन का हर प्रयास वहाँ तक पहुँचने के लिए ही है। किन्तु , मात्र महान दार्शनिकों
द्वारा अन्वेषित सत्य को पुस्तकों के माध्यम से स्पष्ट कर देने की चेष्टा से आत्मा, परमात्मा, जीव, जगत एवं
विभिन्न भौतिक क्षेत्र जनित सत्य को समझना मनुज को तबतक स्वीकार्य नहीं होगा जबतक आत्ममंथन
रूपी कसौटी पर वह उन्हें कस कर देख न ले।
जहाँ तक दार्शनिक चिन्तनाओं का प्रश्न है, सनातन धर्म की चिन्तन प्रणाली इसके सर्वथा अनुकूल है।यह
व्यक्ति-व्यक्ति को अपने सत्य की खोज के लिए प्रेरित करती है। आत्मानुशीलन से,स्वयं के तर्कवितर्क से,
प्रचलित मान्यताओं ,व्यवहारों आदि से सम्बद्ध स्वयं के गुण दोष विवेचन से , परम्पराओं में निहित
विचारशीलता के भाव-अभावों आदि को अपनी तर्कशीलता पर परख कर व्यक्ति अपने लिए सत्य की खोज
करे, इसकी मौन अनुमति देकर जहाँयह प्रणाली अपनी उदारता का परिचय देती है वहीं सत्य की खोज के
लिए सही मार्ग भी जाने अनजाने निर्देशित कर देती है। यही कारण है इस धर्म की उदार मनोभूमि मे कितने
ही धर्म पनप गये किन्तु इसके अध्यात्मिक सत्य से अधिक काल तक दूरी बनाकर नहीं रह सके।
सत्य की खोज भारतीय सनातन जीवन शैली की प्रमुख विशेषता है।यह भारतीय संस्कृति का मूल
है।सभ्यताजनित इस सांस्कृतिक विशेषता का विश्व की सभ्यताओं से कोई वैर नहीं । भारतीय सभ्यता चेतन
तत्व की प्रगतिशीलता को उद्घाटित करने को सदैव प्रयत्नशील है। इसके अनुसार आत्मा शरीर और उसके
मस्तिष्क की विकास प्राप्त स्थिति मे इन्द्रियों ,भावनाओं और बुद्धि की शक्ति मे निरंतर वृद्धि करती है । यह
वृद्धि भी चेतना के शुद्स्वरूप अथवा उसके सत्य को प्राप्त करने के निमित्त ही होती है।यह संम्पूर्ण ब्रह्माण्ड
उस विराट अनदेखे चेतन तत्व की संस्कृति और सभ्यता का विकासमात्र है ।
यह भी समझ में आता है कि विश्व के प्रत्येक जीव की अपनीएक सभ्यता और संस्कृति है । वह मानव
हो अथवा मानवेतर।किन्तु मानवों के सम्बन्ध में यह अवश्य समझा जाना चाहिए कि वह अध्यात्मिक
महत्वाकांक्षाओं परआधारित होना चाहिए ताकि वह परम ब्र्ह्माण्डीय चेतना का अपने जीव -अस्तित्व में
अनुभव कर सके।यह किसी धार्मिक विश्वास पर अथवा किसी भौतिकवादी विज्ञान पर आधारित नहीं हो ।
मनुष्य का निज का विवेक ,उसकी साधना , चितन और अनुभूतियों से ही यह संभव हो सकता है।
सत्य की खोज के लिए निसंदेह मेधा की आवश्यकता है क्योकि इसके बिना चिंतन अपूर्ण है ।
किन्तु यह मेधा किसी राजनीतिक, सामाजिक रीति नीतियों एवम् आर्थिक सम्प्रभुता के पीछे पीछे
चलनेवाली विचारधारा के पिष्टपेषण के लिए नहीं हो बल्कि मौलिक चिंतन द्वारा विश्व की वर्तमान स्थिति
को नकार कर मनुष्य और विश्व सत्य को जानने समझने के लिए प्रयुक्त हो।
यह मानव का अधिकार होना चाहिए कि व्यवस्थाएँ और स्थितियाँ उसके अनुकूल हों ताकि दिनानुदिन
बढती हुई जिम्मेदारियों की संभव हो तो,वह अवहेलना कर अथवा विमुख हो स्वचिंतन में रत हो
सके।आधुनिक शिक्षा प्रणाली को भी मानव के इस अधिकार की रक्षा में सहयोग देना चाहिए।उसे मात्र
बहुमंजिली इच्छाओं कीपूर्ति करने वाले समाज की आवश्यकताओं को पूर्ण करने का ढंग ही नहीं वरन
आत्मविश्लेषण और आत्मनिर्णय की स्वतंत्रता की भी प्रेरणा देनी चाहिए।चिंतन की प्रक्रिया में डूबकर जीवन
जगत और अध्यात्म के सत्य की खोज करने की प्रेरणा देना शिक्षा का वास्तविक स्वरूप होना चाहिए।
आशा सहाय