कविता मल्होत्रा (संरक्षक एवं स्थाईस्ताभ्कर)
राम राज्य की आकांक्षा तो सभी किया करते हैं मगर खुद राम होने से डरते हैं।अग्नि परीक्षा महिलाओं की ज़िम्मेदारी है।आज तक द्रौपदी का चीरहरण जारी है।
कितने युग बीत गए मगर उस युग की महक आज भी हर एक मन को सुवासित करती है।कौन है जो मीरा के भक्तिभाव से अछूता है।कौन है जिसका मन राधा के निःस्वार्थ प्रेम की भागीरथी में भीगा न हो।शायद ही एैसा कोई होगा जिसे रूक्मणी के मस्तक का ताज़ लुभाया न हो।
नई सदी के आगमन के साथ-साथ कई नई रीतियों ने जन्म लिया और कई पुरानी परंपराओं ने दम तोड़ दिया।लेकिन उस युग से आज के युग तक अगर कुछ नहीं बदला तो वो है प्रेम का भाव।माँ अपनी बेटियों के लिए आज भी किसी ऐसे द्वारिकाधीश की तलाश में रहती है जो उसकी बेटी को पटरानी बनाकर रखे।
बेटियों के अपने चुनाव होते हैं।कुछ बेटियाँ अपने माता-पिता को रोल मॉडल मानकर उन्हीं की तरह का गृहस्थाश्रम बसाना चाहतीं हैं।जिसमें दिन रात संबंधियों के मेले तो हों मगर गृहस्थी से जुड़े संबंधियों की ज़िम्मेदारियों के झमेले न हों।
जो बचपन से ही संबंधियों की चुग़लियाँ सुनकर बड़ी होतीं हैं वो अपने लिए एकल परिवार की महत्वाकांक्षा के साथ जीना चाहतीं हैं।जिन लड़कियों का बचपन किसी भी कारण वश एकाकीपन में व्यतीत हुआ हो वो सँयुक्त परिवार की तलाश में रहतीं हैं।आजकल शिक्षा और आधुनिकता के नाम पर प्रेम विवाह का बहुत चलन है फिर भी समाज में हर कोई व्यथित है।
आजकल हर एक कन्या को जन्म के साथ ही डॉल हाऊस गिफ्ट में मिलने लगे हैं।जिनमें सौंदर्य प्रसाधनों और परिधानों के अलावा डेली यूज़ के हाई टैक खिलौनों की भरमार है।छुट्टियों में पारिवारिक विदेश भ्रमण और मित्र मंडली के साथ नाइट आऊट भी अब क़रीब क़रीब मान्य ही होते जा रहे हैं।
आख़िर कौन सा वो भाव है जो इस समूचे अध्याय से ग़ायब है।
वो भाव है सखा भाव।सारथी का संदेश ही विलुप्त है तो रथवाहक तो दिशा विहीन होंगे ही।
इस विषय की सबसे अहम कड़ी “सखा भाव” अपनी गरिमा क़ायम ही नहीं रख पाया।तभी तो मित्र मंडली में बेशुमार आदमी फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी।
हर रोज़ एक नए संबंध का आगमन और एक पुराने संबंध का निष्कासन आज के समाज की सबसे बड़ी विडंबना है।एक कहावत है जैसी सँगत वैसी रँगत।
जन्म से कोई भी कपटी नहीं होता।छल तो ईर्ष्या का भाव सिखाता है और स्वार्थ द्वेष का रंग चढ़ाता है।
मैं-मेरी की भावना तमाम संबंधों के पतन की दीमक है,जो आज मानवीय संवेदनाओं को खोखला कर रही है।
हर बार लोग कन्या पूजन के नाम पर बाज़ारू प्रवृत्तियों के माध्यम से एक रस्म निभा देते हैं।क्यूँ न अब की बार किसी यथार्थवादी परंपरा की शुरूआत की जाए।
केवल बारूदी पटाखों के माध्यम से रावण का दहन नहीं होने वाला।अपने अँदर सोए राम को जगाना होगा।
हर जहन में सारथी हर दिल में दुर्गा बसाएँ
सखा भाव की पूरी,रामायणी हलवा पकाएँ
महज़ डिग्रियाँ नहीं संस्कृति की शिक्षा दिलाएँ
केवल रस्में नहीं मानव जीवन के उद्देश्य पढ़ाएँ
राजनीति से नहीं लौटेगा रामराज्य सबको बताएँ
इस बार मानव चेतना की जागृति के दीप जलाएँ
दिलों में हरियाली और हर एक जहन में खुशहाली
बेताल्लुक़ाना नहीं, रूह से रूह का मेल है दीवाली