विगत वर्ष कोकोरोना वर्ष कानाम देकर उससे सम्बन्धित सारे दस्तावेजों कोसहेजकर रखना चाह रहे थेकिआवश्यकता पड़ने परउसे उलट पुलट करउसकी भयावहता की कल्पना कर लेंऔर आगामी किसी प्रकार के वायरल प्रकोपों में उसका तुलनात्मकअध्ययन कर सकें, और वह इतिहास मे अंकित व्यथा गाथा हो जायकि अचानक कोरोना ने पुनःदुगुने चौगुने वेग से साँसें लेनी शुरु कर दी ताकि हम उसे विस्मृति की परतों में नहीं ढकेल देंअबतक हम इसेधरातल जीवीमानकर हाथ मुँह नाक से सम्बद्ध सारे नियमों उपनियमों का पालन करबचने की बात सोच रहे थे।जागरुक लोगों से दो गज दूरी केाआग्रह भी देखने को मिला, और लोगनिश्चिंतता की मुद्रा में आने लगे पर मायावी कोरोना ने अपने रूप रंग लक्षण सब परिवर्तित कर लिए और बड़े बड़े चिकित्सावैज्ञानिको के ज्ञानको भी चकमादेने कीठान ली। जन प्रतिनिधियों प्रशासकों सबों की शिथिलता को दंडित करने की ठान ली। लक्षणविहीनता भी बड़ा लक्षण बना। और अचानक व्यक्ति को गम्भीर स्थिति में पहुँचाकर मृत्यु के दरवाजे खोल दिये। अब नींद से जागे तो हर स्तर के अधिकारियों को बेड दवाइयों और आक्सीजन की याद आई। आरोप प्रत्यारोप की झड़ी तोलगनी ही थी। अब राजनेताओं की नसोंमें रुधिर की जगह राजनीति बहती है। उन्हें क्या मतलब कि अस्पतालों में आक्सीजन की कमी से मरीज समूहों में मर रहे हैं। उन्हें चिन्ता है कि अगर हंगामा नहीं कियाऔर केन्द्र को दोषी न करार दिया तो उनकी लोकप्रियता का क्या होगाऔर अगले विधान सभा चुनावों में उसके परिणामों का क्या होगा। आक्सीजन और दवाओं के जमाखोरों पर दृष्टि डालते रहने की भी जरूरत नहीं समझी गयी। वैक्सीन की भी चोरी करने मे माहिर चोरों,और कालाबाजारियों की मानसिकता वे क्यों बदलें । अभावजन्य संकट खड़ा कर देना तो उद्येश्य हैं उनका। कुछ लोग संकट पैदा करने की कला में माहिर होते हैं।
हाँ तो बात पहले उस सहज विश्वास का कर लें जिसने नवीन कोरोना कीप्रकृति को नहीं पहचानाजो अब हवा पर सवार है और दो नहीं दस मीटर के घेरे को तोड़ सकता है।अन्य देशों में ती चार बार रूपऔर लक्षण बदल कर इसने तबाही मचाई फिर भारत को यह किस सम्बन्थ के तहत छोड़ देता।हम भ्रम में रहे कि बस टीकाकरण की देरी है और हम बच जाएँगे। यह बात भी धीरे धीरे ही स्पष्ट हुई कि वैक्सीन भी सम्पूर्ण समाधान नहीं , यहउसकी भयावहता को कम करने का मात्र एक उपाय है । मास्क और दूरी तब भी आवश्यक है भारत जैसे देश में शासकीय मनोबल से हम इसे पूरी तरह समाप्त करने का निर्णय नहीं ले सकते।
अर्थ व्यवस्था को पटरी पर लाने के चक्कर में हमने पूरा बाजार, होटल, माल सभा सोसाईटी को धीरे धीरे चरम स्थिति में खोलने अथवा व्यव्हृति की स्वीकृति दे दी। सड़कें भर गयीं।वायुयान से लेकर जल थल के सभी यान पूरी शक्ति से चल पड़े। कोरोना के प्रोटोकॉल एक ओर धरे के धरे रह गये। प्रकट या अप्रकट रूप से हम पूर्ण स्वतंत्रता का उपभोग करना चाहते धे।यह “हम ‘शब्द सामान्य मानसिकता वालेके लिए व्यव्हृत है।क््योंकि अतिरिक्तसावधानी बरतने वाले लोगकभी कभी तोआजीवन बंदिशों का पालन करते हैं। जीवन काआनन्द निर्भीकता से वे नहीं ले पाते
यह साह स और निर्र्भीकता युवा वर्ग मे होती है ।हर चुनौती का सामना करनेवाला यह वर्ग कभी कभी अनिवार्य बंदिशों की भी उपेक्षा कर बैठता है।युवा मानसिकता अपनी शक्ति केे समक्ष किसी की परवा नहीं करती।मास्क उनके शारीरिक सौष्ठव के प्रदर्शन मे बाधा तो बनता ही है साथ ही एक अतिरिक्त और अनुपयोगी कार्य भी है जो उनके व्यक्तित्व की प्रभावोत्पादकता का क्षय करता है। साथ ही आपसी संबंधों को भी प्रभावित करता है।किन्तु यह वायरस इस मानसिकता का कद्र नही करता और अपने इस लहर मेंउसने युवाओं को विशेष रूप से निशाना बनाया है।मास्क और दो मीटर की दूरी की अनिवार्यता का पालन कराने का जिम्मा तो प्रशासन का होता है ,पर उनकी शिथिलता और अवसरवादिता उनसे इमानदार प्रयत्नों की कम ही आशा रखती है। इस भयावह परिणति के मूल मे देश की राजनीति की भी कम भूमिका नहीं होती। देश की हर घटना ,विपत्ति को वह राजनीति के चश्में से देखती है।इस देश की सोचने की शक्ति अब मुख्य रूप से राजनीति केन्द्रित हो गयी है और कोरोना जैसी महामारी को भयावह रूप प्नदान करने के लिए निकृष्ट कोटि के उपाय योजनाबद्ध ढंग से किए गये हों तोइसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं हो सकती।वे विरोधी दल जिनके लिए सत्ता ही एकमात्र स्वप्न लक्ष्य हो, किसी की सफलता को असफलता में बदलने हेतु तरह तरह के षडयंत्रों में लिप्त हो ही सकते हैं।दवाइयों की कालाबाजारी और आक्सीजन सिलींडरों की कमी के पीछे कैसे ष,डयंत्रों की भूमिका रही, कहना मुश्किल है।
इतना तो सत्य है इस लहर की विभीषिका ने सबकी आँखें खोल दी हैं और पुराने सारे लाकडाउन जैसे हथकंडों की शरण में उन्हें जाना पड़ा है जिनका उन सबों ने पूरी शक्ति से विरोध किया था। राज्यों को अपनी भूमिका समझनी पड़ी है।एक बात यह भी सत्य है कि इस विभीषिका ने पूरे देश को अपने चपेट में ले लिया है ,उनराज्यों के निवासियों को भी जो अल्प प्रभावित हैं। घरों मेंबन्द हो जाना हर संवेदनशील व्यक्तिकी नियति बन गयी। लोग डरने से अधिक डराने में विश्वास करते हैं परिणामतःमानसिक रोगियों की तरह लोगों ने असामान्य व्यवहार करना आरंभ कर दिया है।पूरा देश मन से बीमार प्रतीत होता है।
कोरोना अभी गया नहीं है।हमे या तो उसे पराजित करना है या उसके साथ जीना है। फिर तज्जन्य उपायों पर दृष्टि केन्द्रित करनी होगी।. कुछ सकारात्ममक खबरें भी आ रही हैं। डी आर डी ओ के द्वीरा विकसित दवा भी उनमें से एक है। सबसे बड़ी बात जागरुकता के प्सार से है ।
अभी एकमात्र आशा टीका करण पर केन्द्रित है।वही उसके प्रसार को रोक सकता है। वैक्सीन की कमी टीकाकरण की धीमी गति का कारण बन सकतीहै और उन बेसुरे अवसरवादी विरोधियों को क्या कहा जाय जिन्होंने सीरम इनस्टीच्यूट के अदार पूनावाला को जान की धमकी दे दी ,परिणामतः वह भारत में वैक्सीन निर्माण से ही उदासीन हो गये ।ऐसे देशद्रोहियों को पहचान कर जितनी भी सजा दी जाये ,कम ही है।
खैर,टीकाकरण का दौर शीघ्रातिशीघ्र युवावर्ग और बच्चों तक पहुँचे तभी तीसरी लहर के भय से भी मुक्त हुआ जा सकता है ।टीकाकरण की सफलता का सम्बन्धउसको लेने के लिए उत्सुक जनसमूह से और उसकी उपलब्धता दोनों से ही है।लोगों मे बैक्सीनेशन से होनेवालेसकारात्मक परिणामों की जानकारी अवश्य होनी है । इसके लिए ग्राम स्तर तक लोगों को जागरुक करने की आवश्यकता है।अभी कुछ देशों ने वैक्सीनेशन के पश्चातमास्क हटा देने की बात की है। यह एक अच्छाप्रलोभन है, पर भारत जैसैघनी आबादीवाले देश में इसकी छूट दे देना खतरनाक ही साबित होगा। अतःपूरी जनसंख्या के वैक्सीनेशन के पश्चात भी यह मानकर चलना गलत नहीं होगा कि अभी कोरोनाकाल ही है।
वैक्सीन की आसानी से उपलब्धता तो सबसे बड़ी शर्त है ही। दवाएँ भी विकसित हों जो इसकी आक्रामकता को समाप्त कर दें और सर्वजन सुलभ हों यह भी आवश्यक है। इस दिशा में देश प्रयत्नशील हैं , यह बात मन को सांत्वना देती है, अन्यथा इस अदृश्य शत्रु पर विजय पाने के लिए प्रतीक्षा करनी ही होगी।
किन्तु हम आशावान हों , यह सर्वाधिक आवश्यक है।
आशा सहाय