कविता मल्होत्रा (संरक्षक उत्कर्ष मेल)
बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक विजयादशमी का त्योहार समूचे भारतवर्ष में बड़ी धूमधाम से मनाया गया।
लेकिन सदियों से रावण वध की रस्में पूरी करता ये समाज आज तक रामराज्य लौटा लाने में सफल नहीं हो पाया। हम सभी जानते हैं कि एक हृदय से दूसरे हृदय तक प्रज्वलित दिव्य प्रेम की दीपमालिका ही शबरी के रामराज्य का भी ख़्वाब है,और कृष्ण दीवानी मीरा के सतचित्तानँद की दिव्य अवस्था भी,जिसे शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता। फिर एैसा क्या है जो हर आने वाला पल अपने साथ प्रदूषित मनोविकारों के बारूदी पटाखे फोड़ कर वातावरण को प्रदूषित करता चला जा रहा है?
कुँआ सब के भीतर है फिर भी सब प्यास से व्याकुल हैं। क्या शिक्षित होकर भी हम लोग कभी साक्षरता का उदाहरण नहीं बन पाएँगे?
जहाँ तक निगाह जाती है, बेबसी के कैक्टस हथेली पर लिए हर कोई एक दूसरे का शिकार करने को तैयार नज़र आता है।
कहने को दीपावली के त्योहार की तैयारी, लेकिन एक दूसरे को हैसियत के अनुसार क़ीमती उपहार बाँटने को उत्सुक खोखले रिश्ते, जो अपनी समृद्धि का दिखावा अपने गहनों और कपड़ों से करने को तत्पर रहते हैं।
और एक ख़ासा वर्ग जिसमें जुआ खेलने की परँपरा को शान समझा जाता है।
क्या दीपावली का यही मक़सद है? क्या रामराज्य के यही मायने हैं?
स्वार्थी आँखों को कब दिखते हैं
निस्वार्थ प्रेम के भावभीने रिवाज़
प्रेम तो अँतर्दृष्टि है सिर्फ मीरा की
जिसे अभिशापित समझे ये समाज
चलो सृजित कर लें तृप्ति की क्षमता
इस से बेहतर कहाँ,पूजन का आग़ाज़
मादक द्रव्यों में न खोएँ अनमोल जीवन
ख़ुमारी हो तो प्रेम की, सूफ़ी हो अँदाज़
वक्त की यही माँग है कि अब के दीपावली पर सर्वोच्च सत्ता से निस्वार्थता का तेल लेकर परस्पर प्रेम का दीप जलाया जाए।
तो देर किस बात की है, आइए अब के बरस दीपावली पर एैसा पूजन किया जाए जो किसी सँप्रदाय या पूजाघर तक सीमित न हो।
प्रेम ही पूजन प्रेम ही भगवन
हो प्रेम से रोशन सारा सँसार
दीप दिलों के जलाएँ मिलकर
परस्पर प्रेम ही हो जीवन धार
एक दूजे को दें प्रेम की मिठास
प्रेम ही हो हर जीवन का आधार