जब इस श्रृष्टि का निर्माण हुआ तो इसे संचालित करने के लिए जीवों एवं निर्जीवों का एक सामंजस्य स्थापित करने के लिए जीवों एवं निर्जीवोके बीच एक परस्पर संबंध का रुप प्रकृति ने दिया जो कलान्तर मे पर्यावरण कहलाया।जीवों के दैनिक जीवन को संचालित करने के लिए उष्मा रुपी उर्जा की जरुरत होती है। और यह उर्जा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्षरुप से धरती के गर्भ में छिपे खनिज लवण ,फसलों के उत्पादन से अन्न एवं फल-फूल से प्राप्त होती हैं लेकिन धीरे धारे आबादी बढ़ी तो इनकी मांग भी बढ़ी। आबादी तो गुणात्मक रुप से बढ़ी पर संसाधन प्राकृतिक रुप से ही बढ़े । इस बढ़ती हुई आबादी की मांग को पूरा करने के लिए प्राकृतिक संसाधनो पर दबाब तेजी से बढ़ा फलस्वरुप प्राकृतिक संसाधनों का दोहन तेजी से हुआ। जिससे पर्यावरण की नीव हिल गई और इस प्रकृति द्वारा दिए सीमित संशाधनों के भण्डार के दोहन से मानव जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा।
सन् 1844 में औद्योगिक क्रांति के बाद पर्यावरण पर दवाव काफी बढ़ा जिससे बढ़ती हुई आबादी को बसाने ,यातायात के लिए परिवहन हेतु सड़कों का निर्माण से वनों की अंधाधुंध कटाई एवं कल कारखानों से निकले धुआं से वायु प्रदूषित होने एवं शहरो में जमीन को कंक्रीट में बदल देने के कारण पर्यावऱण का स्तर काफी दयनीय होने लगा ।इसे बचाने के लिए देश दुनिया में अलग-अलग प्रयास किये गये।
आज से ठीक 291 साल पहले सन 1730 में राजस्थान के खेजड़ी गांव के लोगों ने खेजड़ी के वनों को बचाने के लिए सामुहिक रुप से 363 विश्नोई समाज के लोगों ने खेजड़ी के वन को बचाने के लिए बलिदानी दी थी। कलान्तर में दुनिया के अनेक स्थानों पर अलग-अलग प्रयास होते रहे। पर सन 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा एंव यू.एन.डी.पी. के संयुक्त प्रयास से जल,जमीन एवं पर्यावरण को बचाने तथा राजनैतिक एवं समामाजिक जागृति फैलाने के लिए पुरी दुनिया में पहली बार स्टाँकहोम में 5 जून से 16 जून तक एक सम्मेलन का आयोजन किया गया। इसके बाद सन 1973 से हर साल 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाते आ रहे है। इसका मुख्य उद्देश्य समाज में जागरुकता फैलाना है।क्योंकि बिना सामाजिक भागिदारी के पर्यावरण को संरक्षित नही किया जा सकता है।
सन 1947 में भारत जब आजाद हुआ तो आजादी के समय अनेक समस्यायें थी इसलिए सरकार पर्यावरण पर कोई खास ध्यान केन्द्रित नहीं कर पायी। जिससे संविधान में इस बात की चर्चा नहीं हो सकी। पर 1948 में बड़े-बड़े उद्योगों को नियंत्रित करने के लिए फैक्ट्री नीतियाँ बनाई गई जो पर्यावरण का ही एक हिस्सा थी। सन 1972 में स्टाकहोम सम्मेलन के बाद भारत द्वारा 1976 में संविधान संशोधन कर संविधान में दो धाराय़े जोड़ी गई । पहली धारा 48ए तथा धारा 51ए(जी),धारा 48ए के तहत सरकार पर्यावरण संरक्षण से संबंधित –जल,जमीन,वायुएवं वन्य जीव संरक्षण के लिए नीतियाँ बना सकती है वही धारा 51ए (जी) के तहत नगरिकों का भी दायित्व बनता है कि वे पर्यावरण संरक्षण में अपना योगदान दे। इसके बाद सरकार द्वारा जल स्त्रोतों को बचाने के लिए जल प्रदूषण निवारण अधिनियम 1974 तथा 1977,वायु को बचाने के लिए वायु प्रदूषण निवारण अधिनियम 1981 लाया गया। वन एंव वन्य जीव रक्षा के लिए वन्य जीव संरक्षण अधिनियम1972, 1986 एवं 1991 तथा वनो के संरक्षण के लिए वन संरक्षण अधिनियम 1980,ध्वनि प्रदूषण को कम करने के लिए ध्वनि प्रदूषण निवारण अधिनियम 1987 लेकर आई । इन सभी को सामूहिक रुप सें मजबूत करने के लिए 1886 में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम लेकर आई। इसी वर्ष विज्ञान एवं प्रैद्योगिकी मंत्रालय से पर्यावरण एव कृषी मंत्रालय से वन को निकालकर एक अलग मंत्रालय-पर्यावरण एवं वन मंत्रालय का गठन किया गया। ताकि देश में पर्यावरण एवं वनों के संरक्षण हेतु आवश्यक एवं प्रभावी कदम उठाया जा सके।
सन 2002 में जैव विविधता संरक्षण अधिनियम लाया गया। जैव विविधता में भारत विश्व में 12वें, स्थान पर है। अकेले भारत में 45,000 पेड़-पौधे तथा 81,000 जानवरों की प्रजातियाँ पाई जाती है। जो विश्व की लगभग 7.1 %बनस्पतियाँ तथा 6.5% जानवरो की प्रजातियाँ मे से है। जैव विविधता संरक्षण के लिए केन्द्र सरकार ने गैर सरकारी संगठनो वैज्ञानिकों , पर्यावरणविद्यों तथा आम जनता की भागिदारी से इसे बचाने के लिए उठाया गया सही कदम है क्योकि बिना जनभागिदारी के पर्यावरण को बचाया नहीं जा सकता है।
राष्ट्रीय जल नीति 1 अप्रैल 2002 को लागू किया गया । राष्ट्रीय जल संससाधन परिषद द्वारा पारित इस नीति के मुख्य उद्देश्य जल के संरक्षण पर बल देना है। इसके तहत नदियों का जल संरक्षण पर आम सहमति बनाना, जल बंटवारे को सुलझाना, जलसंसाधनों के विकास एवं प्रबंधन के साथ-साथ जन भागिदारी एवं जागरुकता पर बल देना ताकि जल को मानव के उपयोग के लिए बेहतर तरीके से प्रस्तुत किया जा सके।
राष्ट्रीय पर्यावरण नीति 2004 के तहत संकट ग्रस्त पर्यावरण संसाधनों का संरक्षण करना, जीवों के समान अधिकारों की रक्षा करना,वर्तमानमें संससाधनो के उचित एवं भावी पीढ़ी के ध्यान में रखकर उपयोग करना तथा आर्थिक एवंसमाजिक नीतियाँ बनाते समय पर्यावरण संरक्षण को ध्यान में रखने की वकालत करता है। वन अधिकार अधिनियम 2006 वन संबंधित अधिकारों का एक महत्वपूर्ण दास्तावेज है। यह 18 दिसंबर 2006 से लागू है। यह कानून जंगल में रह रहे लोगो के भूअधिकार तथा प्रकृति पर निर्भरता को लेकर है ,जो उन्हें संरक्षण प्रदान करता है।इससे जनजातियों को काफी फायदा होगा। उन्हें पुर्नस्थापना में मदद मिलेगी।
उक्त अधिनियमों के तहत सबको संवैधानिक स्वच्छ पर्यावरण एवं सेहत को मान्यता दी गई है जिसकी पुष्टि समय समय पर सर्वोच्च न्यायालय भी करता है।सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कुछ अहम फैसले निम्नवत है-
1987 मे देहरादून के चूना खान को बंद करना ,
1987 में में श्री रामगैस रिसाव मामले के तहत संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सबको जीने का अधिकार के संदर्भ में पीडितों को मुआवजा दिलाने की ब्यवस्था करना।
1988 मे कानपुर मे गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए 5000 से ज्यादा फैक्ट्रियों को बंद या स्थानान्तरित करना एवं उनमें पर्यावरण से संबंधित उपकरण लगवाना।
1992 मे दिल्ली बार्डर पर हरियाणा मे पत्थर पीसने पर रोक लगाना। 1992 में पर्यावरण पर जागरुकता फैलाने के लिए सरकार को दिशा निर्देश देना जिसमें रेड़ियो,समाचार पत्र,टीवी के माध्यम से जागरुकता फैलाना एवं विश्वविद्यालयों में पर्यावरण प्रबंधन पर पाठ्यक्रम शुरु करना मुख्य रुप से शामिल है।1994 में दिल्ली में वायु प्रदूषण के लिए सरकार को दिशा निर्देश देना जिसके तहत 15 साल से पुरानी डीजल एव पेट्रोल के गाड़ियों के परिचालन पर रोक। 1997 में आगरा के ताजमहल के सुरक्षा के लिए जेनरेटर पर प्रतिबंध एवं 24 घंटे बिजली मुहैया कराने का आदेश देना तथा उसके आस पास हरित पट़टी विकसित करना।
2010 राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण की स्थापना करना जो आज देश में पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रयासरत अग्रणी संस्था है।समय समय पर सरकार भी इसके अलावे पर्यावरण संरक्षण के लिए कदम उठाती रहती है मसलन दिल्ली मे ओड और इवेन फार्मूला ,दिल्ली में सी.एन.जी बसों को चलाना,मैट्रो रेल पर जोड़ देना मुख्य है। लेकिन यह तभी संभव है जब जनता भी पर्यावरण संरक्षण में अपनी भागिदारी का रखे ख्याल और पर्यावरण संरक्षण में अपनी भूमिका निभाने के लिए आगे आये। मानव प्रकृतिक संसाधने का उपयोग करे न की दोहन ,तभी पर्यावरण संरक्षण के सही तरीके से कारगर बनाया जा सकता है और विश्व पर्यावरण दिवस की सार्थकता सिद्ध हो पायेगी। लेखक-पर्यावरण प्रहरी