कविता मल्होत्रा (संरक्षक , स्तंभकार, उत्कर्ष मेल)
भारत की आज़ादी का जश्न मनाने के लिए राष्ट्रीय ध्वज फहरा देने भर से किसी भी भारतवासी का अपने राष्ट्र के प्रति दायित्व पूरा नहीं हो जाता।भारत की एकता, शांति, समृद्धि और विकास का प्रतीक तिरंगा फहराना कोई रस्म नहीं बल्कि अपने देश के प्रति रक्षात्मक प्रवृत्ति का एक संकल्प है कि हम अपने तिरंगे के गौरव को कभी धूमिल नहीं होने देंगे।
प्रभु कृपा से मिले मानव तन को मन की शुद्धि और धन की उचित उपयोगिता के साथ तालमेल बैठाते हुए देश की निःस्वार्थ सेवा में अर्पित करने का भाव ही तो देश प्रेम कहलाता है।सीमाओं पर तैनात जवानों की शहादत और साधारण जीवनयापन करते हुए देशवासियों की एक दूसरे के प्रति भाईचारे और सद्भावना की असाधारण प्रवृत्ति भी तो देश प्रेम की ही मिसाल है।
महामारी के दौर ने तो मानव के प्रति मानव के निःस्वार्थ प्रेम की तरफ़ सीधा इशारा करते हुए मानव जीवन के उद्देश्य का खुलासा कर ही दिया है।फिर भी अगर कोई स्वार्थ वश केवल अपना पेट और अपनी जेब भरने के लिए किसी का शोषण करता है तो वो निश्चित ही देशद्रोही कहलाया जाएगा और उसे देश की पौष्टिक मानसिकता के हरण के आरोप से मुक्ति नहीं दी जा सकती।
आजकल की आधुनिक पीढ़ी के नज़रिए से रिटायरमेंट की उम्र आंकी जाए तो जहाँ उनके अधिकारों की सीमा शुरू होती है, वहीं पिछली पीढ़ी के अधिकारों की सीमा समाप्त होती है क्यूँकि अपने हर दायित्व को निभाने के लिए उन्हें एक दूसरा कँधा चाहिए जो उन्हें अपनी आज़ादी की उड़ान भरने का पासपोर्ट दे सके, भले ही वो महत्वाकांक्षी उड़ान उन्हें किसी भी गंतव्य पर न पहुँचाए और औंधे मुँह धरती पर ला पटके।इस पीढ़ी की रोबोटिक नस्लें ही उन पर उनके अभिभावकीय अधिकारों पर कुठाराघात करते हुए प्रश्नचिन्हों की सौग़ात से मालामाल कर रहीं हैं जिस ख़ैरात से न तो उनके शेष जीवन का ख़र्चा निकल पाएगा और न ही ओल्ड एज होम्स में सांस लेने की इच्छा बाक़ी रह जाएगी,क्यूँकि जो अकेलापन बोया गया है वही तो वापस पाएगा।
क्या आज़ाद भारत की परिकल्पना में स्वार्थी प्रवृत्तियों की आज़ादी का भाव गढ़ा गया था! चार पीढ़ियों को साथ लेकर चलने की परंपरा में ही तो भारतीय संस्कृति की झलक दिखलाई पड़ती है।एकल परिवारों की अभिलाषा भला वासुदेव कुटुँब को कैसे परिभाषित कर पाएगी।
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मेरे देश में निकलता है आफताब बदलियाँ छाँटकर
कैसे न बाँटू वात्सल्य की फाँकें क्यूँ न खाऊँ बाँटकर
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कुछ दिन पहले मेरे पास एक अनपढ़ माँ की पितृविहीन बेटी पढ़ने के लिए मदद माँगने आई जो सरकारी स्कूल में नवीं कक्षा की छात्रा है। उसे ऑनलाइन वर्कशीट भर कर भेजनी थी जिसे वो समझ ही नहीं पा रही थी। जब मैंने उसे पास बैठा कर सहयोग करने की कोशिश की तो पता चला कि न तो उसे अपनी मातृभाषा का ज्ञान है, न ही उसे लिखना और पढ़ना आता है। तब मुझे बहुत ताज्जुब हुआ कि ये बच्ची नवीं कक्षा तक पहुँचाई कैसे गई।इसका जवाब कौन देगा? इस बच्ची के पास शैक्षिक सर्टिफिकेट हो भी तो उसकी मान्यता क्या है!
न जाने क्यूँ जब कभी भी कहीं पर पहचान पत्र दिखाने की नौबत आई तो ऐसा लगा कि मानव निर्मित काग़ज़ के इस टुकड़े की क्या ज़रूरत है जबकि हर व्यक्ति के वजूद में स्वंय ईश्वरीय अँश विद्यमान है।
लेकिन हमारे तथाकथित शिक्षित समाज की ये विडँबना रही है कि उसे हर व्यक्ति के माथे पर रंग ओ नस्ल की मुहरें, हर व्यक्ति की शैक्षणिक योग्यताओं के प्रमाणपत्र, भले ही रिश्वतें देकर क्यूँ न ख़रीदे गए हों, हर व्यक्ति के बैंक बैलेंस का ब्यौरा, भले किसी भी तरकीब से भरा गया हो, विरासतों में मिली जायदादों के काग़ज़ात, भले ही ज़ोर ज़बर्दस्ती से किसी का हक़ छीनकर हड़पे गए हों, और तमाम रसूखदारों से व्यक्तिगत संबंध, भले ही उन संबंधों की बुनियाद में गरज़परस्ती के पत्थर भरे हों, इन सभी बारूदी सुरंगों से होकर गुज़रने वाले व्यक्ति को ही हमारा समाज सम्मान का अधिकार देता है।
शायद इस प्रतिष्ठित प्रतियोगिता में भाग लेने की कोई विशेष ज़रूरत नहीं है।इस बात का आँकलन तो हर एक व्यक्ति निजी तौर पर खुद ही कर सकता है कि उसने कभी अपने मानव जीवन के परम उद्देश्य की धज्जियाँ तो नहीं उड़ाईं। पानी के बुलबुले समान जीवन के महत्व को रेखांकित करते हुए अपने अस्तित्व को परम सत्ता के गलियारों से जोड़ने वाले किसी भी मस्तक को किसी मानव निर्मित ठप्पे की क्या ज़रूरत है!
समूची मानव जाति के लिए केवल रब की रज़ा का हस्ताक्षर ही मान्य है।तो भला भूख प्यास से बिलखते किसी भी रंग ओ नस्ल के जीव को कैसे दुत्कारा जा सकता है, भले ही ये भूख़ प्यास प्रेम की क्यूँ न हो। एक यही तो ख़ज़ाना है जो प्रभु ने हर किसी को भारी तादाद में बख्शा है। ये और बात है कि खजाँची ही स्वार्थ वश अपनी नीयतें ख़राब कर बैठें और किसी ज़रूरतमंद को बाँटने की बजाय लूटने की योजनाएँ बनाने लगें।
क्या करना है उस हुकूमत का तमग़ा जो किसी को हरा कर जीती गई हो, क्या करना है उस सल्तनत का ताज़ जो किसी की हसरतों को रौंद कर पहना गया हो।क्या करना है उस रसूखदार का साथ जो उसकी गरज़परस्ती की क़ीमत अदा न कर पाने पर बीच राह में हाथ छोड दे।क्या करना है उस विरासत का हिस्सा जो किसी का हक़ छीनकर हासिल की गई हो।
रब की दरगाह में प्रवेश करने के लिए किसी भी पासपोर्ट की ज़रूरत नहीं है, वहाँ प्रवेश पाने की अनुमति के लिए केवल मानव जाति की मानवता का प्रमाण ही काफ़ी है।
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अधिकार तो वो है जिसके हम अधिकारी हो सकें
केवल कोरी बातों से नूरानी इमारतें नहीं बना करतीं
नफ़रतें तो प्राकृतिक आपदाएँ ज़लज़लों में बहा ही देंगी
हरियाली वतन में तब आएगी जब निःस्वार्थ प्रेम को बो सकें