कविता मल्होत्रा (संरक्षक – स्थायी स्तंभकार)
मरणासन्न स्थिति में पड़े जीवितों को निकाला जाए
अब के बरस श्राद्ध कर्म में श्रद्धा का भाव डाला जाए
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ये तो सच है कि माता-पिता के प्रति अपने संपूर्ण दायित्व निभाने वाली संतान को तीर्थ यात्रा पर जाने की ज़रूरत नहीं होती।अपने विस्तृत परिवार के साथ-साथ समाज के प्रति भी प्रत्येक व्यक्ति के कुछ दायित्व होते हैं जिनकी पूर्ति के लिए उन्हें कोई बाध्य नहीं कर सकता।लेकिन मानसिक संवेदनाएँ
व्यक्ति को उसके दायित्वों के प्रति जागरूक करती रहतीं हैं।
जन्म के साथ ही जीव को माता-पिता का मूक वात्सल्य अपनी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ता।लेकिन हमारे समाज की सबसे बड़ी विडंबना ये है कि ज्यूँ-ज्यूँ व्यक्ति की उम्र बढ़ती है त्यूँ-त्यूँ उसके मन पर भेदभाव का आवरण चढ़ना शुरू हो जाता है।आत्मिकता को नज़रअंदाज़ कर के व्यक्ति भौतिक विरासतों के चँगुल में फँस जाता है और एक कभी ख़त्म न होने वाली प्रतिस्पर्धी रेस में शामिल हो जाता है।निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए मानवता को ही दाँव पर लगा देता है।अपनत्व लुप्त हो जाता है और रिश्तों का विस्तार सिमट कर मैं के शिखर पर पहुँच जाता है, जिसकी ढलान निश्चित तौर पर पोंगे पंडितों के जंजाल में फँसाती है और आख़िरकार माता-पिता की परिक्रमा और तमाम संबंधों की ऋणमुक्ति पर ही आकर रूकती है।
जाने कितनी अलिखित पातियाँ होतीं हैं बेबस संबंधों की निगाहों में, जाने कितने अनकहे सँवाद दिलों में दफन होते हैं।मजबूरियों की ज़ुबान कहाँ होती है।उनकी तो हर साँस ग़ुलाम होती है।जिसे देखो मजबूर इँसान को और दबाता चला जाता है।और मज़े की बात तो ये है कि खुद को खुदा समझने की ख़ुशफ़हमी पाल कर लोग मजबूरियों का ख़ूब शोषण करते हैं और समाजवादी बनने का ढोंग रचकर सेवार्थ दान किया करते हैं।माता-पिता के साथ तालमेल बना नहीं पाते और पेरेंट्स डे पर सैल्फियाँ खींच कर सोशल मीडिया पर अपनी मूँछें ऐंठा करते हैं।
पेज थ्री पार्टीज़ का चलन तो था ही, अब तो मरणोपराँत श्राद्ध कर्म भी पूर्णतः पेज थ्री के रंग में रंगे हुए हैं।
सोई हुईं संवेदनाओं को जगा कर बेटियों के सँरक्षण का संकल्प लिया जाए और मरणासन्न जीवों को ज़िंदगी का उपहार दिया जाए तो सभ्यता की अस्मिता सुरक्षित रहे।राष्ट्र से भ्रष्टाचार ख़त्म हो तो राष्ट्रीयता की भावना को बल मिले।
ज़िंदा रहे तभी तो ज़िंदगी पर यक़ीन आएगा,श्रद्धा साथ रहेगी तो ही श्राद्ध क़बूला जाएगा।
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क्यूँ न निजी स्वार्थ त्याग कर परमार्थ की राह अपनाई जाए
पुचकारे हर प्यासे को कुँआँ और सबकी प्यास मिटाई जाए
बंजर निगाहों को बिना नागा वात्सल्य की मधु पिलाई जाए
जन्मे हर माँ की कोख इंसान और इँसानियत को बधाई जाए
श्राद्ध तो जिस्मानी क्रिया है अब के रूह से रूह मिलाई जाए
जीते जी मरे न मानवता रस्म अब इँसानियत की निभाई जाए