अब तो यह तय हो ही गया है कोरोना वायरस से ज्यादा खतरनाक भाजपा की रणनीति है । भाजपा के वायरस ने मध्यप्रदेश की सरकार को संकट में डाल दिया है । कभी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि ज्योतिरादित्य सिंधिया जी जैसा नेता भी इस वायरस की चपेट में आ सकता है । सिंधिया जी ने दल बदल लिया और म/यप्रदेश की कांग्रेस सरकार को वेंटिलेटर पर बिठा दिया । वैसे भी कर्नाटक की सरकार के गिरने के बाद यह तो तय ही माना जा रहा था कि भाजपा का वायरस कभी भी मध्यप्रदेश की सरकार को भी अपनी चपेट में ले सकता है । कांग्रेस की परेशानी यह है उसके पास मध्यप्रदेश में बहुत कम विधायक हैं और वो बहुमत के लगभग करीब ही है ऐसे में एकाएक झटका भी उसे फर्श पर बिठाने के लिये काफी है । सिंधिया जी के अपने निजी टाइप के कुछ सिंधिया हैं जिन्हें उन्होने शायद ऐसी ही परिस्थितियों के लिये तैयार कर रखा होगा । हर बड़ा नेता अपने गुट को मजबूत कर उसके बल पर अपनी नेतागिरी को चमकाते और मजबूत करते रहते हैं । दिगविजय सिंह से लेकर कमलनाथ और सिंधिया जी भी ऐसे ही गुट का प्रतिनिधित्व करते हैं । सिंधिया जी बड़े नेता कहलाये ही इसलिये जाते हैं कि उनके पास अपना गुट है इसी गुट के बल पर उन्होने अपने राजनीतिक कद को बढ़ाया है । भाजपा में उनका सम्मान भी इसी गुट के कारण ही हुआ है । उनके पास 19 विधायक हैं । प्रदेश भाजपा को प्रदेश में अपनी सरकार बनाने के लिए विधायक चाहिये । सिंधिया जी के भाजपा में आने से उन विधायकों का समर्थन उन्हें मिलेगा और इतने ही विधायकों का समर्थन वर्तमान सरकार के पास कम होगा । वे जब कांग्रेस में थे तब भी वे इन्हीं विधायकों के बल पर अपनी मजबूत पकड़ को महसूस करते थे । यह तो सच है कि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार पर दिग्गविजय सिंह गुट हावी है । दिग्गविजय सिंह जी की गिनती बेहतर रणनीतिकारों में होती है कमलनाथ ने अपनी सरकार बनते ही बजाए सिंधियाजी की मदद लेने के दिग्गविजय सिंह की मदद लेनी शुरू कर दी । दिग्विजय सिंह और सिंधिया जी की आपस में प्रतिस्पर्धा कई बार सामने आ भी चुकी है । ऐसे में सिंधिया अपनी ही सरकार में उपेक्षित सा अनुभव करने लगे । प्रदेश में सरकार बनाने की महत्वपूर्ण कवायद में उनका अपना बड़ा योगदान था । एक समय तो यह लग रहा था कि मध्यप्रदेश में कांगेस सरकार के बनने पर सिंधिया जी ही मुख्यमंत्री होगें । पर ऐसा नहीं हुआ । कमलनाथ जी नये कुरता–पायजामा पहनकर शपथ लेते दिखे । सिंधिया जी की खिन्नता बढ़नी शुरू हो गई । प्रदेश की राजनीति में जैसे–जैसे दिगविजय सिंह का हस्तक्षेप बढ़ा वैसे ही वैसे वे हाशिये पर जाते हुए नजर आने लगे । एक बड़े नेता के लिये यह दमघोटू तो होता ही है । सिंधिया जी की नाराजगी बढ़ती गई और वे इस नाराजगी को प्रदर्शित भी करते रहे पर किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया । सभी को भरोसा था कि सिंधिया परिस्थितियों से समझौता कर लेगें पर किसी ने भी नहीं सोचा था कि वे इतने हताश और निराश हो जायेगें कि वे कांग्रेस से को ही अलविदा की देगें । सारा घटनाक्रम एकाएक भले ही सामने आया हो पर इसकी नींव तो बहुत पहले ही रखी जा चुकी थी जिस पर हर दिन नई इबारत तैयार हो रही थी । भाजपा सत्ता से बेदखल होने के बाद से ही सत्ता के लिये तड़फ रही थी । उसने कुछ प्रयास भी किए पर वे प्रयास सफल नहीं हो पाए । पर सिंधिया जी की नाराजगी ने उसे नया अवसर दे दिया । विगत एक वर्ष में सिंधिया प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान से कई बार मिले भी । जाहिर है कि मुलाकातों ने सिंधियाजी को भाजपा में आने का मनोबल बढ़ाया ।