कुशलेन्द्र श्रीवास्तव (वरिष्ठ साहित्यकार, पत्रकार, स्थायी स्तंभकार)
हिन्दी दिवस मनाना तो हमारी आदत में आ चुका है, अब हिन्दी दिवस चुपचाप नहीं निकलता, भले ही हममें से बहुत सारे लोग हिन्दी को लेकर प्रहसन करते हों पर हिन्दी दिवस तो मना ही लिया जाता है । ‘‘आइए हम हिन्दी को अपनायें’’ कहने वाले लोग इसे भले ही अंग्रेजी में कहते हों वे हिन्दी दिवस की शुभकामनायें भी अंग्रेजी में देते हों, वे अपने बच्चे को कान्वेट स्कूल में पढ़ने भिजवाते हों पर 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस है यह वे जानते हैं । बैंकों के मुख्य गेट पर ‘‘हम हिन्दी को स्वीकार करते हैं’’ का स्लोगन लिखकर अंग्रेजी में लिखने को बाध्य करने वाले तथाकथित वीआइपी भी हिन्दी दिवस मना ही लेते हैं । ‘‘एक भाषा-एक राष्ट्र’’ की भावना को अपने संजोए लाखों हिन्दीवासी हर साल हिन्दी दिवस पर किसी चमत्कार की उम्मीद करते हैं पर ऐसा चमत्कार हो ही नहीं रहा है । वैसे सच तो यह भी है कि हिन्दी के प्रति आमलोगों का रूझान बढ़ा है । हिन्दी अब ‘बेचारी’ हिन्दी के तकल्लुफ से बाहर निकल चुकी है । देश के बाहर याने विदेशों में भी हिन्दी भाषा अपना परचम लहरा रही है । यह सुखद है । वैसे तो हम संस्कृत भाषा को लेकर भी अपनी चिन्ता व्यक्त करते रहे हैं पर संस्कृत अभी भी इस स्थिति में नहीं आ पाई है कि वो आमजन की भाषा बन पाए पर हिन्दी जरूर आ गई है । हिन्दी की इस विकास यात्रा की बधाई तो हिन्दी भाषियों को देनी ही चाहिए । अभी तो और भी लम्बा रास्ता तय करना है हिन्दी को । पर हिन्दी जानती है अपने अवरोधो को हटाना । कोरोना की तीसरी लहर की संभावानाओं के बीच गणेश जी भी अपनी मंद-मंद मुस्कान के साथ विराज चुके हैं । हमारे सामने तो ढेरों समस्यायें हैं भगवान जी के सामने अपना रोना रोते रहते हैं और भला किसके सामने रोयेगें हम । हमारे आंेठ भगवान जी की मूर्ति के सामने जाते ही हिलने लगते हैं ‘‘प्रभु इस भीषण मंहगाई से बचा लो……जेब में नोट नहीं और थैले में दाना नहीं, महंगे पेट्रोल से बचते हुए पैदल ही किराना दुकान पर चले जाओ तो जितने रूपये जेब में होते हैं उससे थैले का एक कोना भी नहीं भर पाता…..अब सब्जी वाला तक मुफ्त में चटनी और मिर्ची नहीं देता, तेल मंहगा, मसाला मंहगा, बनाने का ईधन मंहगा…प्रभु आप हमें इस महंगाई से बचा लो’’ । आम आदमी के आंेठ हिलते रहते हैं और भगवान जी मंद-मंद मुस्कुराते रहते हैं मानो कह रहे हो ‘‘वत्स हम क्या कर सकते हैं’’ । वे लाईटिंग से सुज्जित पंडाल में मोदक खाते हुए अपनी मुस्कान बिखरते रहते हैं और आम आदमी अपनी व्यथा व्यक्त कर अपने आपको शांत कर लेता है । आमजन को कोरोना ने मारा है और अभी कोरोना खत्म हुआ ही नहीं है । अभी तो तीसरी लहर आने वाली है ‘‘सावधान, होशियार कोरोना माई पधार रही हैं’’ पर हम क्या कर सकते हैं । हमने वैक्सीन लगवा ली है । वैक्सीन लगवाने के प्रति जो अभिरूचि अब दिखाई दे रही है वह प्रशंसनीय है । वैक्सीन सेन्टरों पर भीड़ कम ही नहीं हो पा रही है । वैक्सीन के जितने डोज आते हैं वे कुछ ही घंटों में खत्म हो जाते हैं भैया डर बुरी बला है । कहां तो पहले लोग वैक्सीन के नाम से ही भय खा रहे थे और अब वैक्सीन लगवाने के लिए लम्बी-लम्बी कतारों में खड़े दिखाई दे रहे हैं । वे दूसरी लहर की मार में समझ चुके हैं कि जान बचाना है तो वैक्सीन लगवा ही लो । आम आदमी की व्यथा बहुत हैं और उससे ज्यादा व्यथा नेताओं की है । एक चुनाव खत्म होता है और दूसरा सामने आकर खड़ा हो जाता है । राजनीति भी अब फलटाइम जाॅब में परिवर्तित हो चुकी है । पश्चिम बंगाल का चुनाव निपटा तो अब उत्तरप्रदेश सहित और चार राज्यों के चुनाव सामने दिखाई देने लगे । धुले-ध्ुालायें कुरता-पायजामा पहनकर नेताओं की टोली इन राज्यों में घूमने लगी है । एक मतदाता और दर्जनों राजनीतिक दल, सबकी अपनी-अपनी रामकहानी, सभी के पास बिल्कुल नई किस्म के लालीपाप का पिटारा । मतदाता सोच लेता है कि अभी बहुत दिन है अभी से कौन इनके लालच में आए । अभी और घोषणा होने दो जो सबसे ज्यादा देगा हम उसके बारे में सोच लेगें । वह अभी से पचड़े में नहीं पड़ता वह तेल देखता है और फिर तेल की धार । उत्तर प्रदेश में नेताओं की चहल कदमी बढ़ चुकी है । भाजपा को अपनी सत्ता बचाने की चिन्ता है इसलिए वह तैयारी में सबसे आगे दिख रही है । इस बार औबेसी भी चुनावी समर में कूद चुके हें । उन्हें लग रहा है कि बस सत्ता उनकी मुट्ठी में है । उनकी बयानबाजी कुछ तो माहौल खराब कर ही रही है । कांग्रेस भी अपनी दमखम लगा रही है । कांग्रेस के पास खोने को कुछ है ही नहीं जो आयेगा वह परसाद ही होगा पर बड़ी पार्टी है तो उसे भी ‘‘हम व्यस्त हैं’’ का प्रदेर्शन करते रहने होगा जो वह कर रही है । कभी कांग्रेस दूसरी पार्टियों के लिए चुनौती हुआ करती थी पर अब छोटे-छोटे क्षेत्रीय दल भी उनकी उपस्थिति को नकार देते हैं । इसे पराभव कहा जाता है । सत्ता पाकर समाजसेवा करने की बात अब आम आदमी समझ चुका है । समाजसेवा के तौरतरीके बदल चुके हैं । सत्ता है तो समाज सेवा है नहीं है तो जो सत्ता में है उसे हटाने का नारा है । उत्तरप्रदेश अब कुछ महिनों तक ऐसे ही राजनीति का अखाड़ा बना रहेगा । उत्तर प्रदेश ही क्यों जहां चुनाव होने हैं वे चार राज्य भी कुरूक्षेत्र का मैदान बनने वाले हैं पर ज्यादातर राजनीतिक दलों का फोकस उत्तरपद्रेश पर ही रहेगा । भाजपा को अब उन हर राज्यों में अपनी सत्ता बचाने की कवायद करनी पड़ रही है जहां अभी वह सत्ता में है इसके लिए उसे अपने बड़े नेताओं को भी या तो घर में बैठाना पड़ रहा है अथवा शतरंज के चैखाने में । गुजरात के विजय रोपाणी जी रातोंरात घर पर बैठ गए । कहां तो उन्हों इतना भी समय नहीं था कि वे सुकून से गिलास भर पानी पी लें पर अब जब वे मुख्यमंत्री नहीं रहे तो अपने घर के आंगन में फूले पौधों को भी पानी देते नजर आयेगें । गुजरात में भी चुनाव हैं आने वाले वर्ष के अंत तक वहां चुनाव हो जायेगें । भाजपा पूरी निर्दयता के साथ अपने मुख्यमंत्रियों को हटा रही है जहां निकट भविष्य में चुनाव होने वाले हैं । कर्नाटक में यदुरप्पा जी ने जिस तरह जोड़-तोड़ कर सत्ता हासिल की बेचारे ज्यादा दिन सत्ता का सुख ले ही नहीं पाए । एक ही झटके में उन्हें अपने पद से अलग कर दिया गया । ऐसा ही उत्त्राखंड में हुआ । त्रिवेन्द्रम रावत जी को हटाया और दूसरे मुख्यमंत्री के कुर्सी पर बैठा दिया गया पर भाजपा को लगा कि ये तो जल्दबाजी में गलती हो गई तो फिर मुख्यमंत्री बदल दिया गया । अबकी बार युवा नेता को जिन्हें मंत्री बन जाने तक की भी उम्मीद नहीं थी उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया गया । गुजरात में भी ऐसा ही हुआ । बेचारे नितिन पटैल तो पूरी उम्मीद लगाये बैठे थे कि बस उनका नम्बर लगा ही उन्होने तो अपने घर में सुरक्षा व्यवस्था तक मजबूत कर ली थी और ये मौका हाथ से न चुक जाए इस भावना से वक्तव्य भी जारी कर दिया था कि ‘‘मुख्यमंत्री उसे बनाओ जिसे गुजरात का हर घर जानता हो’’ । वे समझ रहे थे कि ऐसा वे अपने बारे में कह रहे हैं पर आलाकामन ने उस बात को गंभीरता से लेकर दूसरे को मुख्यमंत्री बना दिया । वो भी ऐसे विधायक को जो पहली बार विधायक बने हैं । नितिन पटैल अपना उतरा सा चेहरा लेकर रह गए । अब तो उनको भविष्य में भी कोई संभावना दिखाई नहीं दे रही होगी । भाजपा यह बात समझ चुकी है कि जो पुराने नेता हे वे थोड़े बहुत ही सही या तो गुटबाजी के शिकार हो चुके हैं अथवा विवादों में आ चुके हें । नया चेहरा लाओ तो आम जनता पुरानी सारी गल्तियां माफ कर देती हैं । नये चेहरे को विवादों में आने में समय लगता है तब तक चुनाव निपट ही जायेगें रहा सवाल नेताओं के नाराज होने का तो उसके लिए हंटर तैयार है ही जरा सा भी मुंह तक बनाया तो हंटर अपना काम कर देगा । नाराज नेताओं के पास विकल्प ही नहीं है । इस कारण से वे अपना मुंह फुलाए ‘‘हमसे क्या भूल हुई जो ये सजा हमको मिली’’ गुनगुनाते हुए समय काट लेते हैं । अभूतपूर्व होने से अच्छा है कि अभी वर्तमान बने हो और फिर भूतपूर्व ही हो जाओ । कितने ऐसे बड़े-बढ़े नेता हेैं जो एक समय ऐसे माने जाते थे कि उनके ही बल पर पार्टी चल रही है पर एक झटके में वे किनारे लगा दिए गए और मजे की बात यह है कि पार्टी अब भी चल रही है । पश्चिम बंगाल में कैलाश विजयवर्गीय ने भाजपा के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया ये अलग बात है कि वहां रिजल्ट इतना बेहतर नहीं मिला जिसकी अपेक्षा पार्टी कर रही थी । अब कैलाश विजयवर्गीय की आंखों के तारा नहीं रहे वे आंखों की किरकिाी बन चुके हैं तो उन्हें पश्चिम बंगाल में ही उपेक्षित किया जाने लगा है । इसका उदाहरण है पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा के उपचुनाव के स्टार प्रचाराकों कर सूची जिसमें सारे नेता हैं यहां तक अपना मंत्री पद चले जाने से नाराज चल रहे बाबूल सुप्रियों तक हैं पर केवल कैलाश बाबू नहीं है । मतलब साफ है कि अब कैलाश बाबू वापिस अपने प्रदेश में ही रहे आयेगें वहां भी शायद उन्हें बहुत सम्मान न मिले । जगमगाती दुनिया में टिमटिमाते तारों का कोई अस्तित्व नहीं होता । भाजपा बड़ी पार्टी होने के गुमान में है और जो उनकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता उसकी जगह भरने के लिए प्रतिक्षा सूची भी बहुत लम्बी है तो भाजपा के नेताओं संभल जाओ और अपनी गति बढ़ा दो वरना फिर गतिमान ही नहीं रह पाओगे और कुछ ही समय में ‘‘भूले बिसरे गीतों’’ में शामिल हो जाओगे ।