कविता मल्होत्रा (स्तंभकार-उत्कर्ष मेल)
वसँत ऋतु ने अब के बरस ये कैसी दस्तक दी है, चारों तरफ रक्त-रँजित फाग का मँज़र है। कहाँ गया वो मौसम जब हर पखवाड़ा वृँदावन की पावनता से महकता था।
आखिर एैसा क्या हो गया कि आज सर्वोत्तम योनि पाकर भी मानव अपनी ही चाल भूल गया है। क्यूँ चाहिए उसे चलाने के लिए कोई एैसी सरकार जो किसी भी कीमत पर केवल स्वार्थ सिद्धि के समीकरण हल करने को ही अपना दायित्व माने बैठी है।
क्यूँ है इतना हठ हर इँसान के मन में कि हर हाल में अपनी लकीर को दूसरे की लकीर से बड़ा ही साबित करना है।जनता की ख़ून पसीने की कमाई कहाँ इस्तेमाल हो रही है? क्यूँ वँचित है आम आदमी आज सभ्यता के इतने विकास के बाद भी?
हम आज भी अपने देश में अपनों से ही व्यापार करने में समर्थ क्यूँ नहीं हैं ? बाहरी देशों में होने वाले मौसमी परिवर्तनों से हमारे देश की अर्थव्यवस्था क्यूँ चरमरा जाती है। क्यूँ हम आज भी अपने देश के विकास के लिए बाहरी देशों की नीतियों और परिस्थितियों के मोहताज़ हैं।
ये कुछ एैसे ज्वलँत प्रश्न हैं, जिनका उत्तर किसी के पास नहीं है। केवल अनिश्चितता के ख़ौफ़ से अपनी बागडोर तक़दीर के हाथ में सौंपकर नियति के समक्ष सर झुका लेना तो केवल शत्रु देशों की हौसला अफ़्जाई ही करेगा।
वक्त की माँग ये है कि अपने ही देश अपने ही घर और अपने ही अँदर छुपे हुए सत्ता लोलुप दुश्मन को पहचान कर उसे खदेड़ने में खुद ही पहल करें।
आज देश की मौजूदा स्थिति इतने नाज़ुक दौर से गुज़र रही है कि किसी दूसरे के पास इस समस्या का कोई समाधान हो ही नहीं सकता।
हर किसी को अपने अपने हिस्से का दायित्व अपने अपने ही कँधों पर लेना होगा, शायद तभी ख़ूनी फाग का ये घिनौना समीकरण हल हो पाए!
कितना खूबसूरत सँदेश देती है प्रकृति अपनी निस्वार्थता के उपहारों से लेकिन मानव जाति निस्वार्थ प्रेम से अपनी धरोहर को समृद्धि देने के बजाए हवाओं को भी ग़ुब्बारों में बँद कर के बाज़ार में बेचने पर उतारू है।
क्यूँ न अब के बरस होली के त्योहार पर होलिका दहन की रस्म निभाते हुए सब लोग अपने-अपने अलगाववादी विचारों की आहुति देकर, एक दूसरे के उत्थान की मिठास परस्पर साझा करें और केवल प्रेम रँग से होली का उत्सव मनाएँ।
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जश्न हो अब के फागुन का
निस्वार्थता के आचमन का
बने नागरिक हर कोई अब
एक ही मिट्टी के आँगन का
सँप्रदायिकता और भेद मिटें
हो उत्सव दिलों के सँगम का
पँच तत्वों का ऋण चुका दें
है वक़्त सागर के मँथन का
गुलाल प्रेम का लगे सब पर
हो रँग यही अब फागुन का