सम्पन्न हो तुम देख लो,
वो फटे पट सीने लगे।।
बहुत जर्जर हो गई थी ,
मेरे माँ की लूगरी।
और कोई भी नही थी ,
धौत बस्त्र दूसरी ।।
दूसरी होती नये परिधान में,
वो खिलखिलाती।
लोकलज्जा से विवस ,
डरकर न यूँ ही सहम जाती ।।
लाज आखिर लाज है ,
चैतन्यता की गीत में।
हम उलझ कर रह गये हैं,
हार और जीत में।।
सुत है हम ?
धिक्कार हमको माँ को
न पहचान पाए ।
मेरे रहते गैर की आश्रय में,
वह क्यूँ त्राण पाये ।।
न्याय कर्ता की सृजन में,
कौन कमीने लगे।
संपन्न हो तुम देख लो ,,,,,।।
कहाँ है प्रचंडता तेरी,
प्रचंड सोच ले।
ठंढ में माँ है ठिठुरती,
क्या प्रबलता सोच ले।।
सोच ले अपने परम उद्देश्य को,
सिर्फ तूँ जननी के कारण,
ही यहाँ है।
प्रबल राकाओं में ,
वर्ना तूँ कहाँ है।।
कहाँ है स्तित्व तेरा ,
इस सकल ब्रह्माण्ड मे।
अगर बैठेगा नही तूँ,
माँ की आँचल छाँव में।।
सघन शीतों को तपिश से
तूँ मिटा दे ।
शीतलहरों में हवा ,
मधुमास की तूँ खास दे ।। कवि उमाकान्त तिवारी प्रचंड,(बस्ती)उ, प्र ,9625776225