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उम्र का तकाज़ा है पर ज़िन्दा हैं अरमान अभी

“उम्र का तकाज़ा” है

कि छोड़ दूँ

तमाम सुखों की

ख़्वाहिशें करना और

साथ बढ़ती उम्र के

बढ़ती ज़िम्मेदारियों

के बोझ तले

दब पिस कर

फ़ना कर दूँ

हस्ती अपनी

किसी भी आम

इंसान की मानिंद…

लेकिन ऐसा होगा क्या?

मुमकिन तो नहीं

सब की मर्ज़ी हो जो

वही मर्ज़ी हो मेरी भी

कैसे ख़त्म कर दूँ

अपने भीतर की

उस नन्हीं बच्ची को

जो भले ही

भागती नहीं पीछे

तितलियों के अब

किन्तु दीख जाए

जहाँ भी कोई झूला

उछल के हो जाती

सवार उस पर…

कैसे कह दूँ

कि गई हूँ बुढ़ा मैं

जबकि देखा जाए तो

तन ही दुर्बल हुआ मेरा

पर वो नन्हीं बच्ची

होगी बड़ी कभी नहीं

मृत्यु के पास

पहुँचने तक भी

तभी तो कहती हूँ

मेरे कितने ही

“ज़िन्दा हैं अरमान अभी”

उसके रूप में…

–“नीलोफ़र”-

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