ये ठहरी आखिर महानगरी मुम्बई की सड़क , जहाँ दिन हो या रात हर समय गाड़ियों और लोगों का महापुर जमा रहता है I हर कोई अपनी धुन में, बस जल्दी गंतव्य तक पहुँचने की होड़ I आज भी पूरी की पूरी सड़क कार, टैक्सी, बस और टू-व्हीलर से भरी हुई थी और इसमें सावित्री की कार चींटी की चाल से आगे सरक रही थी | हर पल सावित्री की बेचैनी बढ़ रही थी… ड्राइवर भीड़ में से कार निकालने की पूरी कोशिंश कर रहा था…. बीच बीच में पसीना पोछता और दायें-बायें सड़क पर रुकी गाडियों को घूरता. पर ये ठहरी मुंबई की सड़क… पूरी की पूरी भीड़ को निगलने की क्षमता रखे हुए | सावित्री के विवाह को पाँच बरस बीत गए थे पर मातृत्व का सुख उसे अभी तक नहीं मिला…. डॉक्टर, वैध हकीम कहाँ कहॉ – कहॉ गुहार नहीं लगाई, मन्नते माँगी पर न जाने क्यों किस्मत उससे मॅूह मोड़ बैठी थी | यूँ तो उसका परिवार हँसता खेलता था, संयुक्त परिवार में जिम्मेदारियाँ भी होती है और अपनापन भी I I सास-ससुर, ननद और सदैव स्नेह बरसाने वाले पति पर, यदा-कदा विषय निकल ही जाता | तीज-त्यौहार हो या शादी-ब्याह, प्रश्नसूचक, नजरें उसे कड़वे अनुभव दे ही जाती | पता नहीं लोग क्यों नहीं समझते की रिश्ते केवल खून से ही नहीं जज्बातों से भी बनते हैं ?
सावित्री पिछले बरस छोटी बहन के बेटे के जन्म पर गई थी…. लौटी तो ‘बाँझ’ शब्द का बोझ अपने दिल पर लेकर | ऐसा नहीं की उसके पति को संतान की चाह नहीं थी, दोनों एक ही नाव में सवार थे पर नरेश काफी संयत थे, परिस्थितीनुसार सब कुछ संभाल लेते | जब कभी रात के अंधेरो में सावित्री के दुःख आँसू बन कर निकलने लगते तो नरेश के बोल और कंधे उसके मन की तड़प कम करते | नरेश ने सावित्री को अलग-अलग संस्थाओं, क्लबों और सामाजिक कार्यो से से जोड़ा हुआ था पर वे केवल समय बिताने के साधन बन गए आतंरिक पीड़ा कम नहीं कर पाये |
आखिर दोनों ने बच्चा गोद लेने का निर्णय लिया पर यह भी आसान नहीं था | पूरा घर उनके खिलाफ हो गया… न जाने किसका खून…? इससे तो बेऔलाद भला | सावित्री आश्चर्यचकित पढ़ा-लिखा संभ्रात परिवार और इतनी दकियानूसी सोच? ऐसा नहीं की वह मामी, चाची, बुआ बनकर स्नेह नहीं रखती थी पर बच्चा पाने की उसकी लालसा दिन प्रतिदिन बढ़ते ही जा रही थी | बस आज सुमित्रा और नरेश अनाथाश्रम ही जा रहे थे | वहाँ पहुँच कर उन्हें एक नन्हीं बच्ची भा गई… गोल मटोल चेहरा, सुंदर मोटी-मोटी आँखे रंग गेहुआ… सारी क़ानूनी प्रक्रिया पूरी होकर नन्हीं बच्ची सुमित्रा की गोद में आ गई | परिवार के अन्य सदस्यों की प्रतिक्रिया बहुत सुखदायक नहीं थी पर सावित्री का तो जैसे जीवन ही बदल गया | पूरा दिन बच्ची को सीने से लगाए रखती.. नए कपडे, खिलानों और किताबो से घर भर गया | नरेश थके-हारे घर लौटते तो बच्ची की मुस्कान दिनभर की थकान पलभर में गायब हो जाती |
हफ्तेपर में नामकरण का आयोजन किया गया | सभी रिश्तेदार और परिचित आए | बड़े प्यार से बच्ची का नाम मुग्धा रख गया | सावित्री को जीवन संपूर्ण लगने लगा था | देखते ही देखते मुग्धा छह बरस की हो गयी | चंचल बातूनी मुग्धा सभी की चहेती थी | स्कूल में भी अव्वल, चित्रकला मे तो माहिर |
एक दिन सावित्री की तबियत कुछ नासाज थी, सुबह से जी मिचला रहा था और चक्कर अलग उसने पति को फोन कर दिया | नरेश आते – आते डॉक्टर ले आए | जाँच पर ब्लड प्रेशर कुछ नीचे था पर साथ-साथ खुशखबरी भी थी | सावित्री माँ बननेवाली थी | सारे घर में ख़ुशी की लहर दौड गई | सभी सावित्री की तीमारदारी में लगे रहे | नियमित जॉंच चल रही थी. समय पूरा होते सावित्री ने एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया | परिवार की तो मानों बरसों की मुराद पूरी ही गयी…. मुग्धा तो बस स्कूल से आते ही भाई के कमरे में घुस जाती | बड़े धूम -धाम से बेटे का नाम दुर्गेश रखा गया | बस सावित्री और नरेश को एक बात बहुत अखरती थी… परिवार वालों का मुग्धा की तरफ बिगडता खैय्या… बात-बात पर झिडकियाँ और दुरावा | कई बार नरेश ने समझाने की कोशिश की पर कोई बदलाव नहीं |
दुर्गेश अब साल भर का हो गया था | सावित्री की व्यस्तता बहुत बढ़ गयी थी शरीर भी थकने लगा था… चिडचिडापन बढ़ रहा था | पर नरेश सब संभाल लेते हर तरह से सहकार्य करते | नरेश की बदली दुसरे शहर में हो गयी | नए शहर में शुरू में दिवक्तें खूब आई पर धीरे-धीरे सभी अभ्यस्त हो गए |
समय बीतता रहा मुग्धा बारहवीं पास पर चुकी थी और दुर्गेश छटी कक्षा में पढ़ रहा था | नरेश ने सावित्री की कई बार मुग्धा से सच्चाई बताने की बात कही पर सावित्री की कई बार मुग्धा से सच्चाई बताने की बात कही पर सावित्री ने टल दिया… मेरे लिए मुग्धा और दुर्गेश मेरी संताने है और मेरी ममता दोनों के लिए बराबर है… रत्ती भर भी मेरे मन में खोट नहीं तो क्या जरूरत है | बात आयी-गयी हो ली |
एक दिन मुंबई से दुर्गा मौसी आ धमकी | सारा ताम-झाम साथ था | अरे यहाँ शादी में आई थी सोचा दो-चार तुम्हारे साथ रह लूँ | नरेश और सावित्री ने मौसी की आवभगत में कोई कसर नहीं छोड़ी माँ-बाप के देहांत के बाद नरेश की निकटता मौसी से ही थी | दोपहर को मौसी ने कमरे में सावित्री को बुला लिया… अरे बहुरिया दो घड़ी बैठ बतियाने से मन हल्का हो जावे है… अच्छा ये बता मुग्धा कितने बरस की होई गई ? जी अठ्ठारह की फस्ट इयर बी.एस्सी में है |देख बहुरिया नरेश से तो मैं ये बात छेड़ नहीं सकती पर तुम्हें बोल सकती हूँ, अब मुग्धा के हाथ पीले कर दो तो अच्छा है… कोई ऊँच नीच हो गयी तो मुश्किल फिर वो तेरी कोख जनी तो है नहीं… जितनी मुँह उतनी बातें… पहले ही रिश्ता मिलने में मुश्किल | सावित्री अवाक मौसी का चेहरा देखती रही.. पर मौसी कोई क्या कहता है हमे फर्क नहीं पडता… मुग्धा खूब पढ़ना-लिखना चाहती है… हमारे भी कुछ सपने है…. ‘लो मैं तो नाहक ही तुम्हे सीख देने लगी’…. मौसी ने बीच में ही बात काट दी |
मुग्धा ने दरवाजे की ओर से सारी बाते सुन ली थी | बार-बार उसके कानों में एक ही बात गूँज रही थी… फिर वो तेरी कोख जनी तो है नहीं… फिर वो है कौन? मौसी दो-तिन दिन में बोरिया-बिस्तर समेट जा चुकी थी | इधर मुग्धा के स्वभाव में काफी बदलाव आ गया था | कॉलेज से आकर खुद को कमरे में कैद कर लेती… जितना काम कहो उतना ही करती… हर किसी से नजरे चुराती स्वाभाविक था की कोई ना कोई बात उसे अंदर से खाए जा रही थी |
सावित्री और नरेश इस बदलाव से हैरान थे | एक दिन सावित्री ने जानने की कोशिश की तो जैसे ज्वालामुखी फट गया… लगभग चीखते हुए मुग्धा ने कहा… मैं कौन हूँ? सभी इस सवाल से भौचक्के रह गए…. मेरे माता – पिता कौन है ? मुग्धा फफक-फफक कर रोने लगी |
नरेश ने समझदारी से कम लिया उन्होंने मुग्धा को लेकर बम्बई जाने का फैसला लिया | उसे आश्रम दिखाया, गोद लेने के सारे कागजात दिखाए… एल्बम में सजे सारे फोटो दिखाए पर मुग्धा का मन शांत नहीं हुआ | नरेश जानता था की मुग्धा के लिए यह समय बहुत कठिन था… “ identity crisis” भारी मन से दोनों लौट आए |
मुग्धा के लिए अब घर पर रहना एक समझौता हो गया था… तो आप लोगों ने मुझ अनाथ को पनाह दी है… ये तो मुझपर अहसान है… और अहसान का बोझ बहुत भारी होता है | कौन क्या समझाता ? दुसरे दिन मुग्धा स्कूटी लेकर बिना नाश्ता किए कॉलेज निकल गई | रस्ते पर सिग्नल पर उसने गाड़ी रोकी… उसकी नजर एक छोटी दस-ग्यारह उम्र की बच्ची पर पडी… गुलाब के फूल बेचते हुए | बाल रूखे-मैले, नाखूनों पर काली परत, पाँव पर जमी धुल और मैला- कुचला फटा फ़्रॉक | तभी एक चमचमाती कार से हाथ का इशारा हुआ | लड़की ने गुलाब के फूल आगे कर दिए… फूल लेते समय उस आदमी ने बेसलूकी से बच्ची का हाथ कस कर दबाया ,लड़की हाँफते हुए फुटपाथ पर चली गयी |
मुग्धा को लगा गाड़ी से उतर कर उस आदमी के गाल पर दो चांटे रसीद दे पर सिग्नल छूट गया और गाड़ी आगे निकल गई | सारा दिन मुग्धा के नज़रों में लड़की का चेहरा घुमाता रहा.. कहाँ रहती होगी ? लोग क्या इसी तरह उससे बदसलूकी करते होंगे… माँ बाप होंगे या नहीं … उसके परिवार ने तो उसे कोई कमी नहीं होने दी… भरपूर प्यार दिया… दुर्गेश तो उस पर जान छिडकता है.. ईश्वर ने उसे इतना कुछ दिया…. फिर भी उसे शिकायत क्यों है… क्या वो भी इसी तरह सिग्नल पर… सोचते ही उसके ही उसके रोंगटे खड़े हो गए |
शाम मुग्धा कॉलेज से देर से लौटी तो सभी परेशान थे | सावित्री की आंखे रो-रोकर लाल थी… नरेश चिंतित चक्कर काट रहे थे | मुग्धा घर में घुसते ही सावित्री से लिपट कर रोने लगी ‘माँ मुझे माफ़ कर दो… अपने मुझे पनाह नहीं ममता की छॉव दी है.. आप सही कहती हैं रिश्ते केवल खून से नहीं बनते, प्यार से बनते हैं’ | इसके आगे कुछ समझने-समझाने की जरुरत नहीं थी | सभी की आँखों से निरंतर अश्रुधारा बह रह थी |
उज्जवला साखलकर