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लोग

लोग होते हैं जो ढूँढते हैं

अपनी कमी दूसरों में।

हँसते हैं झूठी हँसी

छिपाते हैं अपनी

दोहरी शख्स़ियत

करते हैं दिखावा

आदमीयत का।

लोग नज़र आते हैं

करते हुए काना-फूसी

चुगली करते ज़हर उगलते

मीठी ज़बान से।

लोगों की किस्मों

का ही तो भरम है

करें किससे प्रेम

भरोसा करें किस पर

झूठ ओढ़े छिपा है

सच का आवरण।

आँखें दिखाती हैं कुछ

ज़बान चुप भी अगर

मीठे बोल में बस भरा

विष है डसने का डर।

हाल-चाल पूछ लेते हैं

खकर बुरे भाव

कसक उजाड़ देने की

लूट लेने की मन में साध।

ये लोग ही हैं जो

राहों में काँटे बिछाते हैं

ज़ख़्म पीर की गहरी

दाँव सब पर चलाते हैं।

भरोसा बार-बार तोड़ा

ठेस है कितनी पहुँचाई

बेशर्म मगर इनकी फ़ितरत

लाज हर बार इन्हें न आई।

ये लोग ही तो हैं

जो जनाजों का

बोझ उठाते हैं

भीड़ में घुसकर

जगह खु़द की बनाते हैं ।

चुक जाए न कोई मौका

सेंधमारी कर ही जाते हैं

क्यों लोग, ऐसे लोग छलते हैं

छलावा करते जाते हैं।

डॉ कल्पना पाण्डेय ‘नवग्रह’

नोएडा

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