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कोऊ नृप होऊ, हमें का हानि……..

आजकल बड़े बैनर के अखबारों का झुकाव विज्ञापन के लिए काफ़ी हद तक सरकारों के पक्ष में रहती है। शुरुआती  दिनों में मैं ज़ब अखबार में काम नहीं  करता था और दुर्भाग्य से एक बार एक अख़बार खरीद लिया था। उसमें लिखा था सरकारी  छँटनी होनी थी वो हो चुकी थी औऱ हम कुछ ऐसे भाग्यशाली लोग थे, जो उस छँटनी में बचे रह गए थे। उन्हीं दिनों अखबार के मूल्य बदले गए थे। मैंने उस अख़बार को आश्वस्त करते हुए कहा था कि ‘अरे नही अख़बार तो सब नए है पर खबरें वहीं पुराने ही हैं, एक बदलाव के आने से क्या कल्चर बदलेगा ! सब वही रहेगा, बहुत घबराने की बात नहीं है।’ मगर उस समय बहुत मायूसी से कॉमिक्स  के अपने दिनों को याद किया था। बाद में मुझे महसूस हुआ किकिसी ने  ठीक कहा था। देखते-देखते अखबार का दायरा जेल में तब्दील होने लगेगा । हम सब बिना तनाव के हल्के-फुल्के माहौल में अपना काम करने के आदी थे। डेडलाइन पढ़ने  के अलावा और कोई खींचतान नहीं हुआ करती थी। बदलते समय में कई तरह के तनाव, खींचतान, राजनीति… उठापटक का सामना करना पड़ रहा । अब आजकल पहली बार यह लगा  कि किसी भी संस्था का प्रमुख, चाहे वह परिवार हो, कोई सामाजिक संस्था हो, आर्थिक संस्था हो या राज्य या देश हो, उसके बदलने से सब कुछ बदल सकता है। इसी तरह चाहे कोई सरकार हो, ज्यादा कुछ बदलने वाला नहीं है। आखिर तो हर पार्टी का उद्देश्य हर हाल में सत्ता में आना औऱ सत्ता में बने रहना है, इसके लिए चाहे जो करना पड़े। सरकारें देश औऱ समाज को ज्यादा नहीं बदलती है।

                 उन दिनों यह विचार था कि सरकार के जिस निर्णय से सहमति हो उसकी तारीफ करो औऱ जिससे असहमति हो उसकी आलोचना तो लोग आपके लिए चाटुकार और देशद्रोही की दो केटेगरी बना लेते है। एक दौर ऐसा भी रहा, जब समझ यह कहने लगी कि ‘कोई नृप होऊ हमें का हानि…।’ मतलब तब तक अपनी समझ में तटस्थता या निष्पक्षता एक मूल्य था।  2010 से पहले वाला दौर था। कांग्रेस की सरकार थी केंद्र में और मनमोहनसिंह प्रधानमंत्री थे, वे कम कहते थे तो कम उड़ाए भी जाते थे, लेकिन आज पलटकर देखता  हूँ तो पाता हूँ कि इस  वक्त मेरी लिस्ट में कई कांग्रेसी भी है । उनमें से कुछ तो कांग्रेस के पदाधिकारी भी, मगर सब  ने पलटकर सरकार की आलोचना पर खुशी और अपनी आलोचना पर गोदी मिडिया कहना शुरू कर दिया। मेरे सहयोगी अखबारों ने  कभी कोई आपत्ति ली हो याद नहीं आता पर उनमें से कुछ संपादको ने जातिवादी मानसिकता दिखाई और सपा के खिलाफ लिखने पर लेख लेना बंद कर  दिया जबकि कायदे से देखा जाए तो सपा सिर से पाँव तक आलोचना लायक है । धीरे-धीरे 2016 के बाद सरकार के अच्छे  कार्यों की प्रशंसा करने वालों पर तमाम जुबानी आक्रमण होने लगे। मैंने अपने इर्दगिर्द दोस्त, और संपादको को दूर होते देखा। दोस्त औऱ संपादको  के व्हाट्स एप ग्रुप में कभी शामिल था , लेकिन उसमें भी वही राजनीतिक मैसेजेस… कुछ दिन विरोध किया, फिर खुद ही उस सबसे अलग हो गया। मोदी-काल के शुरुआती दौर में वामपंथी लोकतंत्र को लेकर चिंता जाहिर करते थे तो लगता था कि ये अति-विरोध है। धीरे-धीरे उनकी चिंताएँ अवसर  रूप में हमारे सामने आने लगी। यूनिवर्सिटी में पढ़ते हुए एक वाक्य याद किया था, ‘राजनीति समाज में आधिकारिक मूल्यों का निर्धारण करती है। नेहरू के वैज्ञानिक और लोकतांत्रिक व्यक्तित्व ने चाहे देश के आम आदमी के व्यक्तित्व को प्रभावित नहीं किया हो, लेकिन मोटे तौर पर व्यवहार में संयम दिखाई देता था। इसे लोकलाज भी कह सकते हैं कि मोदी जी से पहले जो अंधविश्वास था, उसे बाकायदा अंध विश्वास ही कहा जाता था। उसका हमारी संस्कृति कहकर महिमामंडन  किया जाता था। राजनीतिक संस्कृति पूरे के पूरे समाज को प्रभावित करती है। मूल्यों का आधिकारिक निर्धारण कैसे होता है यह मोदीजी के काल में पूरे संदर्भ-प्रसंग सहित समझ आया। अंधविश्वास कब संस्कृति बन गए पता ही नहीं चला। देखते-देखते लोकतंत्र के लिए तैयार होता देश, लोकतंत्र के विरोध में आकर खड़ा हो गया। इसे भी मोदीजी के काल की उपलब्धि समझी जानी चाहिए। उनके ही काल में मुझे राजनीतिक संस्कृति का विचार भी अच्छे से समझ आ गया। इसी वक्त यह भी समझ आया कि पक्षधरता मूल्य है, निष्पक्षता गैर जिम्मेदारी है। औऱ यह भी कि राजा बदलने से बहुत कुछ बदलता है, क्योंकि सत्ता समाज की प्रकृति, समाज के किरदार को प्रभावित करती है। यदि पिता सख्त होंगे तो बच्चे सहज नहीं हो पाएँगे। यही क्रम आगे बढ़ेगा। अच्छी बात यह हुई है कि मेरी अपनी समझ स्पष्ट हुई है। लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल्य पता चला है। यह भी जाना कि ‘कोऊ नृप होऊ हमें का हानि’ वाला एटिट्यूड भी एक किस्म का प्रिविलेज ही है।

                       __ पंकज कुमार मिश्रा, मिडिया विश्लेषक एवं पत्रकार जौनपुर यूपी

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