सभी मौसम सभी ऋतुओं को संग ले आना।
प्रिये नव संवतसर बन के मेरे घर आना।
सरसों के फूल बन के यादें तेरी आतीं हैं।
मुझसे गेहूॅं की बालियों सी लिपट जातीं हैं।
अपनी यादों के संग एक बार आ जाना,
प्रिये नव संवतसर बन के मेरे घर आना।
सभी मौसम सभी ऋतुओं को संग ले आना।
जब भी आते थे तो फागुन की तरह आते थे,
अपनी सतरंगी सी यादों को छोड़ जाते थे।
मिलन के पल सुनहरे अपने संग ले आना,
प्रिये नव संवतसर बन के मेरे घर आना।
सभी मौसम सभी ऋतुओं को संग ले आना।
याद जब आती तेरे हाथों की बसंती छुअन,
विरह की तपती दुपहरी में ये जलता है बदन ।
प्रीति की ठंडी-ठंडी छांव संग ले आना,
प्रिये नव संवतसर बन के मेरे घर आना।
सभी मौसम सभी ऋतओं को संग लेआना।
देख लो आ के मेरी भीगी हुई पलकें उठा,
प्यासे कजरारे नयन बन गये सावन की घटा।
झूमती गाती बहारों को संग ले आना,
प्रिये नव संवतसर बन के मेरे घर आना।
सभी मौसम सभी ऋतुओं को संग ले आना।
गीतकार अनिल भारद्वाज एडवोकेट हाईकोर्ट ग्वालियर