एक ऐसी घटना जिसकी भारतीय जनमानस ने कभी कल्पना तक नहीं की होगी,उसे घटित कर वर्तमान राजनीति के तथाकथित नेताओं ने देश की विभाजनकारी शक्तियों को बल प्रदान करने के लिए भारतभूमि की मूल सांस्कृतिक मानवतावादी विचारधारा पर आघातपहुँचाने की कुचेष्टा के द्वारा सनातन संस्कृति के प्रति सनातन विश्वास को ही चोट पहुचायी है।
यह विश्वास सनातनहै क्योंकि सम्पूर्ण विश्व की उन्नत सभ्यताओं के मूल में इन्ही सनातन मूल्यों को विविध प्रकार से प्रतिभासित देखा जा सकता है। ये सनातन हैं सार्वकालिक हैं, सार्वदेशिक हैं। सबसे बड़ी बात कि ये मानवतामूलक हैं।महाकवि तुलसीदास ने एक महान आदि चरित्र को इन मूल्यों से नहीं जोड़ा होता तो न राम का चरित्र आदर्श होता न तुलसीदास महान होते।तुलसीदास ने जोकुछ कहा है वह अन्तःसाक्ष्य के अनुसार नानापुराणनिगमागम सम्मत कहा है । फिर उनके नीतिजनक कथनों पर संशय क्यों?क्या महाकवि के कथनों पर अविश्वास नाना पुराण आगम निगम पर ही अविश्वास नही? दूरगामी निष्कर्षों में सनातन संस्कृति पर किये गये इस अविश्वास का परिणाम सम्पूर्ण मानव जाति के मानवता जनित मूल्यों के विखंडन का कारण सिद्ध हो सकता है। ओर यह मात्र इसलिए कि राम चरित मानस के कुछ कथनों को वे अथवा हम समझ नहीं पाए।
देश के एक विशेष हिस्से में कुछ नेताओं ने राम चरितमानस की प्रति जला दी।ऐसा आक्रोश एक महाकाव्य के प्रति इसलिए कि उसकी दो पंक्तियाँ उन्हें सामजिक समरसता को चोट पहुँचानेवाली और गैर मानवतावादी प्रतीत होती है!! अपने महाकवि की विचारधारा पर संशय क्यो? संशय करने पहले कवि की देश काल जनित कुछ प्रतिबद्धताओं पर भी विचार करना आवश्यक है जिसे राम चरित के माध्यम से एक आदर्श समाज के निर्माण की प्रेरणा देनी थी, राक्षसत्व के विस्तार को रोकने की प्रेरणा देनी थी , और अधर्म की ओर प्रेरित समाज को मानव मूल्यों से परिचित कराना था। इसके लिए ऩिगमागम सम्मत राम के चरित्र को पुनर्जीवित करने काउन्होंने संकल्प लिया था यह मात्र राम के प्रति उनका भक्तिभाव ही नहीं, बिखरी हुई सामाजिक भावना को पुनःसंयोजित करने का प्रयत्न था, लोकमानस में पैठना था। ऐसी स्थिति में महाकवि किसी वर्ग की न तो उपेक्षा कर सकते थे और किसी की निन्दा। उनका उद्येश्य तो हर वर्ग की भवनाओं में पैठे अनैतिक तत्वों और राक्षसत्व को मिटाने का प्रयत्न करना था। फिर उन्होने ऐसा क्यों कहा —
ढोल गँवार शूद्र पशु नारी।, ये सब ताड़न के अधिकारी।।
प्रश्न के घेरे में तीन पद हैं शूद्र और नारी। इन दोनों पदों की व्याख्या करनी आवश्यक है।
यद्यपि राम चरित मानस की गीता प्रेस द्वारा सभी मुद्रित प्रतियों मे शूद्र पद का ही व्यवहार हुआहै अतः पाठकों ने इसका तात्पर्य शूद्र वर्ण से लिया है जो ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य से इतर वर्णमाना गया और जिसका कार्य समाज की सेवा का था ।वस्तुतः आरम्भ से ही शूद्र नाम का वर्ण नहीं माना गया था किन्तु समाज में जीविकोपार्जन के लिए एवंअन्य कार्यों के आधार पर समाज के उपरोक्त तीन वर्णों की सहायता करनेवाली जाति को उन्होंने शूद्र वर्ण केअन्तर्गत रखा। वस्तुतः यह वह वर्ण था जिसके बिना अन्य तीनों वर्णों के कार्य सम्पादित नहीं हो लकते थे पर जीविका के लिए वे उनपर आश्रित भी थे। पर चूकि वे स्वतंत्र व्यवसाय वाले वणिकों की तरह चतुर नहीं थे, अर्थव्वस्था उनका मुँह नहीं जोहती थी, अतः वेमहत्वपूर्ण नहीं थे। ब्राह्मण और क्षत्रियों की भूमिका समाज में दिशा निर्देशन और लड़भिड़ कर समाज और राज्य के रक्षण की थी अतः उनकी तुलना में तथाकथित शूद्र वर्ण की स्थिति आश्रित चाकरों जैसी थी। विद्या प्राप्त करने का अधिकार उन्हें नहीं था । अन्य वर्णों ने संभवतः इस की आवश्यकता उनके लिए नहीं समझी।किन्तु वे महत्वहीन नहीं थे। उनपर समाज के सारे कार्य आश्रित थे। अतः उनके महत्व को देखते हुए उनपर अनुग्रह की आवश्यकता थी, वे प्रताड़ित होने के अधिकारी नहीं थे।
राम चरितमानस का उपरोक्त कथित अंश सुन्दरकांडके अट्ठानवें दोहे के बाद की चौपाई का है जो समुद्र के मुख से कहलाया गया है।प्रथमतः तो विद्वानों के अनुसार उसके पाठ में ही अशुद्धि है। उस अशुद्धि के मूल में रामचरित मानस के पुनः पुनः संशोधन और मुद्रण का हाथ हो सकता है जिसके कारण छुद्र अथवा क्षुद्र के स्थान पर सुद्र अथवा शूद्र का पाठ कर दिया गया। ऐसा करने के पीछे सामाजिक राजनीति हो सकती है, अगर सचमुच ऐसा हुआ हो तो। ऐसी संभावना तो है ही । बहुत सारे विद्वानों ने ऐसा माना है।
– मेरा ध्यान दैनिकजागरण के दिनांक 31 जनवरी को प्रकाशित एक प्रसिद्ध लेखक एवंपूर्व आई पी एस अधिकारी श्री किशोर कुणाल के एक वक्तव्य ने आकृष्ट किया जिसमें उन्होने स्पष्ट किया है कि यह शब्द मूलतः शूद्र नहीं वरन क्षुद्र था । उन्होंने प्रेस नोट जारी कर1810 में कोलकता के विलियम फोर्ट से प्रकाशित और पंडित सदल मिश्र द्वारा सम्पादित श्री राम चरित मानस का उल्लेख करते हुएकहा कि यह पाठ मूलतः ढोल गँवार क्षुद्र पशु नारी के रूप में है।उनके अनुसार सदल मिश्र द्वारा सम्पादित यह पुस्तक सर्वाधिक पुरानी प्रकाशित पुस्तक है।उन्होंने एशियाटिक लियो कंपनीसे प्रकाशितहिंदी और हिन्दुस्तानी सेलेक्शंस नाम से छपी पुस्तक मेंरामचरितमानस के सुन्दरकांड को भी प्रकाशित किया गया था उसमें भी क्षुद्र शब्द का ही प्रयोग हुआ था। सम्पादक गण थे तारिणी चरण मिश्र, विलियम प्राइस, एवं चतुर्भुज प्रेमसागर मिश्र । वे कहते हैं कि चार मई1874 को मुम्बई के सखाराम भिकसेट खातू के छापेखाने सेनगमा के देस सिंह द्वारा सम्पादित तुलसीकृत रामायण का प्रकाशन हुआ थाऔर इसमें भी पाठ क्षूद्र था, शूद्र नहीं। इसकी पुनर्मुद्रित प्रति श्री किशोर कुणाल को प्राप्त हुई है जिसमे उपरोक्त पद क्षुद्र ही है, शूद्र नहीं। इस क्षुद्र को शूद्र में संभवतः 1880 में बनाया गया और गीता प्रेस की कृपा से इसी रूप मे रामचरितमानस का अंग होकर घर घर पहुँच गया।
आचार्य किशोर कुणाल की यह बात अगर सही है तो चौपाई की इन दो पंक्तियों का सम्पूर्ण अर्थ ही परिवर्तित हो जाता है । क्षुद्र पशुओं और नारी अथवा पशुवत आचरण युक्त नारी से इसके अर्थ को जोड़ा जा सकता है।
यह तो बाद की बात है। सर्वप्रथम तो सागरकी ऐसी उक्ति ही संगत प्रतीत नहीं होती। प्रतीत होता है कि ये दोनो पंक्तियाँ ही क्षेपक अंश हैं , जिनकी वहाँ कोई आवश्यकता ही नहीं।जहाँ तक सिन्धु काप्रश्न है उसके मुख से कहलाए गये दो चरण ही अर्थपूर्ण और मर्यादित प्रतीत होते हैं जो निम्नवत हैं–
गगन समीर अनल जल धरनी।इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी।।
सिन्धु तो ढोल, गंवार ,शूद्र ,पशु और नारी में से किसी भी श्रेणी में नहीं आता। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह चौपाई के चरणों को पूर्ण करने का बलात् प्रयास है!
अगर तुलसी कृत रामचरित मानस मे ऐसा खिलवाड़ कर सकने की कल्पना हम नहीं कर सकते तोफिर अवधी भाषा में लिखे इस महाकाव्य मे व्यव्हृत ताड़ना शब्द का अर्थ उसी लोकभाषा में क्यों न ढूंढे ? अवधी में ताड़नाशब्द का अर्थ समझना और पहचानना है न कि प्रताड़ित करना।बोलचाल की भाषा में सर्वत्र इसका यही अर्थ लिया जाता रहा है। अन्य लोकभाषाएंभी इस अर्थ से जुड़ गयी हैं। संभवतः यह अवधी का प्रभाव हो। हम हालातों को ताड़ते हैं, इरादों को ताड़ते है, अच्छे बुरे व्यक्तियों को ताड़ जाते हैं। इस अर्थ में तो तुलसी ने उपरोक्त चरण में व्यव्हृत पांचो यानि ढोल ,गंवार शूद्र पशु और नारी से व्यवहार करने से पूर्व उन्हें अच्छी तरह समझने पर बल दिया है. उनका मान बढ़ाया है। इस बात पर आपत्ति करने का कोई कारण नहीं।
अगर हम जिद कर ताड़न शब्द को प्रताड़न के अर्थ में व्यव्हृत करना भी चाहें तो उसके मूल मे उस कारण को ढूँढना होगा जिससे तुलसी जैसै विद्वान शास्त्रज्ञ प्रभावित हों। आखिर तुलसी ऐसा क्यों कहेंगे?उन्हे अपने जीवनकाल में शूद्रों से क्या वैमनस्य हो सकता था जिसके फलस्वरूप वे उन्हें ढोल और गंवार की श्रेणी में रखते?उनके राम ने तो गुह को गले लगाया था और भीलनी के जूठे बेर खाए थे।नारी शब्द के संदर्भ में भीसीता को माता माननेवाली उनकी भावना कभी भी नारी विरोधी नहीं हो सकती।उनकी पत्नी परम विदुषी थीं और उन्होंने ही तुलसीदास को रामभक्ति के लिए प्रेरित किया था इस हेतु वेतो उनसे उपकृतही थे।
अगर ऐसा नहीं था तो उनकी सम्पूर्ण रामभक्ति की सत्यता पर ही प्रश्नचिह्न खड़े हो जाएँगे सच पूछिये तो तुलसी दास ने नारी को समझने की बात की है। समझना कैकेयी को भी है, सीता को भी और मंथरा कोभी।उर्मिला मांडवी और श्रुतिकीर्ति की भूमिका को भी उन्होंने आदर्श स्वरूप प्रदान किया है। मंथरा केमुख पर देवी सरस्वतीको बैठाकर दैवी योजना को आधार मान प्रकारांतर से उसे भी दोषमुक्त कर दिया है।स्त्री के सन्दर्भ में तुलसीदास ने सभी कवियों की उक्तियों को सत्य मान कैकेयी के चरित्र की गम्भीरता को प्रमाणित किया है।
” सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ।सब विधि अगहु अगाध दुराऊ।। “—अयोध्याकांड
रामचरितमानस की मूल भावना मर्यादा और आदर्श की प्रतिस्थापना है । विश्रृंखलित समाज को इसका पाठ पढ़ाने के लिए ही राम के चरित्र का सहारा लिया है जिसमें देवत्व भी है, मनुजत्वभी है सामाजिक आदर्शों का जो मूर्तिमान स्वरूप है । इसका यह भी अर्थ स्पष्ट है कि समाज के सभी वर्गों में अनैतिकता व्याप्त थी। जो चिन्तनीय थी। गोस्वामी जी ने इसका उल्लेख यों किया है–
दोहा -सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउमुनिनाथ।—–अयोध्याकांड 171वाँ दोहा
हानि लाभ जीवन मरनु जसु अपजसु विधि हाथ।।
चौपाई- अस विचारि केहि देइअ दोसू। व्यरथ काहू पर कीजिअ रोसू।।
तात विचारि करहु मन माहीं।सोचजोग दसरथु नृपु नाहीं।।
सोचिअ विप्र जो वेद विहीना ।तजि निजु धरमु विषय लवलीना।.
सोचिअ नृपति जो नीति न जाना ,जेहि न प्जा प्रिय प्राण समाना।।
सोचिअ बयसु कृपन धनवानू। जो न अतिथि सिव भगति सुजानू।।
सोचिअ सूद्रु विप्र अवमानी।मुखर मानप्रिय ग्यान गुमानी।।।
सोचिअ पुनि पति वंचक नारी कुटिल कलहप्रिय इच्छाचारी ।।
सोचिअ बटु निज व्रत परिहरई। जो नहीं गुर आयसु अनुसरई।।
दोहा–
सोचिअ गृही जो मोह बस करइ करम पथ त्याग।
सोचिअ जती प्रपंचरत विगत विवेक विराग।।
इन दोहों और चौपाइयों में तुलसी ने सबों को शोचनीय बताया है।वेदविहीन विप्र नीतिज्ञान सेहीन नृपति धनवान किन्तु कृपण वैश्य ,ब्राह्मण की अवमानना करनेवाला शूद्र जो स्वयं को ज्ञानी समझता हो,पति को छलनेवाली कलही नारी , वहब्रह्मचारी जो ब्रह्मचर्य का त्याग कर देता है,वह गृहस्थ जो मोहवश कर्मपथ का त्याग कर देता हो और उस सन्यासी का सोच करना चाहिए जो ज्ञान वैराग्य से हीन और दुनिया के प्रपंचों में फँसा हो।स्पष्ट ही तुलसीदास जी ने शूद् और नारी के समाज के लिए अहितकर होने की स्थिति में सोच का विषय बताया है।सभी शूद्रों और सभी नारियों से उनका तात्पर्य नहीं है।यह तथ्य उपरोक्त अन्तःसाक्ष्य द्वारा ही प्रमाणित है।
यह युगधर्म था जिसके निर्वाह के लिए यथास्थिति का उल्लेख और आदर्श की प्रतिस्थापना दोनों की ही आवश्यकता थी। तुलसी ऩे एक बहुत बड़े आध्यात्मिक प्रसंग को सामाजिक धरातल पर उतारा था अतः पात्रों के सामाजिक एवं मनोविश्लात्मक चित्रण की आवश्यकता थी ही। तुलसी ने वही किया जो महाकाव्यात्मकता की माँग थी।
फिरभी हम चाहें तो रामचरितमानस के उन नारी चरित्रों का आकलन कर सकते हैं जिनके विषय में कवि ने लोकमानस को एक धारणा बनाने की छूट दी है । जो सहृदय हैं वे कवि के साथ भावतादात्म्य रख सकते हैं , वह चरित्र है कैकेयी। कैकेयी की पात्रता राम चरित में प्रधान रूप से गुम्फित है। कैकेयी अगर वही कैकेयी नहीं तो राम भी वह राम नहीं जिनके जन्म का उद्येश्य राक्षसों का नाश करना था। यह योजना कैकेयी की हो अथवा देवताओं की,पर कैकेयी इसके मूल में है ।उसने ही राम के मर्यादापुरुषोत्तम की भूमिका का मार्ग प्रशस्त किया।आध्यात्म रामायण में मंथरा और कैकेयी दोनों के मुखपर देवी सरस्वती को आसीन होने की प्रेरणा दी गयी हैपर तुलसी ने कैकेयी को मंथरा से प्रभावित ही बतामा पर्याप्त समझा। उन्होंने एक माता की सहजसंतान प्रियताऔर उसके उत्कर्ष की कामना से किसी से भी सहजप्रभावित हो जाने की कमजोरी प्रदर्शित की है।
नाना पुराण निगमागम संमत इस महाकाव्य के चरित्र सोद्देश्य हैं जो राम के चरित्र के उत्कर्ष के लिए अत्यन्त आवश्यकरूप से गठित हुए हैं। तुलसीदास ने किसी चरित्र की निन्दा न करते हुए उसे समझने की आवश्यकता पर बल दिया है।
रामचरितमानस एक धार्मिक सामान्य ग्रंथ नहीं बल्कि एक महाकाव्य भी है जिसके मानवतावादी होने में कोई संशय नहीं और जिसके चरित्रों की भावनाओं की स्वाभाविकता और पवित्रता मानवो की भावभूमि के आधार पर सार्वदेशिक और सार्वकालिक कही जा सकती है। यही कारण है कि यह घर घर में पूज्य है। इसे जलाने का प्रयास करना वस्तुतः मानवतावादी विचारधारा का अपमान होने के कारण अत्यंत हास्यास्पद भी है। आशा सहाय