विधा:-दुर्मिल सवैया छंद
सुत कौशलया जब राम जने,भइयों मिल चार हुये तब थे।
अवधेश मिटे सब कष्ट मिले, नगरी घृत दीप जले अब थे।
दरबार बॅंटे उपहार प्रजा, सचिवों नृप के मन भी खुश थे।
बजती ध्वनि नूपुर गान सुना, हिजड़ों निकसे मुख आशिष थे॥
ॲंगना सब बालक खेल रहे, खुश माँ उनकीं यह देख सभी।
मन चैन मिटे मुख हाय कहें, यदि वे चलते गिर जात कभी।
जब “लक्ष्य” बडे़ सब होन लगे, गुरु की नृप थी अभिलाख तभी।
पहुॅंचे बिनु आस वशिष्ठ वहाँ, नृप भेज दिये सुत चार सभी॥
गुरु कौशिक मांग लिये सुत दो, रखना दिखता ऋषि के हित की।
वध द्वय सुबाहु सुकेतुसुता,भय हीन क्रिया मुनिनाथन की।
गुर सीख लिये अबिलंब सभी,धनु भंजन आन सिया वर की।
पहुॅंचे गुरु साथ स्वयंवर में, धनु भंजन से मन की सिय की॥
मन चाह रही नृप राम बनें, अवधेश किया अब घोषित था।
वर आड़ दिखी मन रुष्ट प्रिया, वर राम चहा वनवास तथा।
सुत को युवराज बना तुम दो, शुरुआत दिखी नृप अंत कथा।
पितु मान दिया तज राज प्रभू,वन जान सिया सह भ्रात मथा॥
वन में भटकें अब राम सिया, तब लक्ष्मण सेवक हैं भइया।
सुन पालन देय जुबान प्रिया, पितु मान रखा तज राज दिया।
यह तो वन जान विधान न था, शबरी भवपार मलाह किया।
उपकार जटायु मिले हनु से, वध बालि किया नृप भ्रात नया॥
बहिनी कह रावण की नकटी, गठबंधन हो पिय मान लिया।
वह मौत बनी उस रावण की, हरना छल से जब सीय किया।
हनुमान लिया प्रण खोजन का, पहुॅंचे वट ठाॅंव अशोक सिया।
प्रभु सेतु बना हनते दनुजों , दससीस विभीषण राज दिया॥
वनवास समापन था उनका, अब चौदह पूर्ण हुईं बरषें।
चलते वन से अवधेश पुरी, मइया भइया नयना तरसें।
अवधेश पुरी जब वे पहुॅंचे, सम मान हुआ सबका मन से।
जलते घृत दीपक शान बनी, उनकी नगरी जनता हरषे॥
सिय का हरना उजला कहता, रखना गृहणी सिय सी छल की।
सुन ली जब राम विदा करके, सिय भेज दिया कुटिया ऋषि की।
रख मान तजा सिय को प्रभु ने, उजला मुख रोक लगी भड़की।
लव थे सिय के सुत पेट पले, रचना कुश की कुश से ऋषि की॥
हयमेघ रचा जब यज्ञ प्रभू, धवला हय को तब छोड़ दिया।
पकड़ा लव ने कुश संग रहा, लड़ना प्रभु से ऋषि रोक लिया।
तब लाकर राम रखा सिय को, अब लक्ष्मण देह विछोह किया।
विचरे वन में तप हेतु तभी, सुत द्वै नृप से मुख मोड़ लिया
इति ॐ
मौलिक रचनाकार- उमाकांत भरद्वाज (सविता) “लक्ष्य”, भिण्ड (म.प्र.),सेवा निवृत्त पूर्व शा.प्र. एवं जिला समन्वयक म.प्र.ग्रामीण बैंक भिण्ड (म.प्र.)