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सब निपट गए…… !

राजनीतिक सफरनामा

                              सब निपट गए…… !

                                                                                                   कुशलेन्द्र श्रीवास्तव

चुनाव निपट गए मतलब सब कुछ निपट गया । नियमानुसार चुनाव भी में भी कुछ लोग निपट गए और कुछ लोग निपटते-नपटते रह गए । जो बच गया उसने गहरी सांस ली पर जो निपट गए वे कई दिनों तक तो घर से ही नहीं निकले । मध्यप्रदेष में तो हर कांग्रेसी नेता निपट गया । कई तो ऐसे निपटे कि वे गहरी सांस भी नहीं ले पाए । मध्यप्रदेष में कांग्रेस ने चुनाव लड़ा भी ऐसा ही था मानों वे जबरदस्ती लड़ रहे हों उनमें उत्साह था भी नहीं । कई नेता तो कहीं टिकिट न मिल जाए इस चक्कर में पूजा पाठ करा रहे थे । उन्हें भरोसा था कि वे निपटेगें ही । मन के हारे हार है वे हार गए मन से पहले हारे फिर वोटों से हारे ।  जब मैदान में संघर्ष करो तो जीत की थोड़ी बहुत उम्मीद बनी रहती है पर यहां तो कोई उम्मीद थी ही नहीं सो सारे के सारे कांगेसी प्रत्याषी हार गए । छिंदवाड़ा की सीट पर सभी की नजरें थीं पर सभी यह जानते भी थे कि हारेगें तो वहां से भी । कमलनाथ जी ने कुछ महिने पहले भाजपा में जाने की जो नौटंकी की थी उससे वे कांग्रेस की दृष्टि में तो संदेहास्पद हो ही गए थे पर जब वे वहां नहीं जा पाए तो भी कांग्रेस उनसे दूरी बनाकर ही चली । उनके खुद के विष्वसनीय साथी बीच चुनाव में उन्हें अकेला छोड़ कर भाजपा में चल दिए । राजनीति के मौसम का ज्ञान किसी को नहीं होता । अभी तक कोई ऐसा सेटेलाइट अंतरिक्ष मकें छोड़ा भी नहीं गया है जिससे पता चल जाए कि अब कौन सी पार्टी सत्ता में आने वाली है । नेता को सत्ता चाहिए सत्ता के लिए वे सिद्धांतों से समझौता कर लेते हैं, बल्कि समझौता क्या कर लेते हैं वे तो उसे छोड़ ही देते हैं ‘‘सिद्धांत गए तेल लेने’’ वाली स्टाइल में । इसी वजह से नेता बेचारे कसमकस के दौर से गुजरते हैं और अपने न से संभावनाओं के आधार पर लिए गए निर्णयों में फंस जाते हैं । पिछले साल मध्यप्रदेष के विधानसभा चुनावों में लग रहा था कि कांग्रेस की सत्ता आने ही वाली है सो कई दिग्गज भाजापाई कांग्रेस में शामिल हो गए पर वहां सत्ता आई भाजपा की तो कुछ भाजपाई तो वापिस भी आ गए पर कुछ नहीं आ पाए । वे घर लौटकर आने में शर्मिंदगी नहीं होती । राजनीति में शर्मिंदगी  को कोई स्थान नहीं होता ‘जो शर्मिंदगी को पाल लेता है वो जिन्दगी भर भूलचूक में चला जाता है । इधर लोकसभा चुनावों में जैसे ही मोदी जी ने चार सौ पार का नारा दिया और माहौल भाजपा के पक्ष में दिखाई देने लगा तो कई नेता भाजपा में शामिल होने के लिए कतारों में खड़े हो गए । पर राजनीति का मौसम कोई नहीं बता सकता वे बेचारे भी नहीं बता पाते जो एक्जिटपोल जैसा खेल खेलते हैं । अपना सीना चौड़ा कर वे चिल्ला-चिल्ला कर कहते रहे भाजपा चार सौ पार करेगी । वे भाजपा में अपना नम्बर बढ़ा रहे थे पर जब चुनाव नतीजे आए तो सारा खेल बिगड़ गया । सत्ता में तो भाजपा ही आई पर बहमत के आंकड़ों से दूर रही । जिस उत्तर प्रदेष में कांग्रेस कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि वहां उसे दो से अधिक सीटें मिल जायेगीं वहा समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर भाजपा को 32 सीटों में समेट दिया । राजस्थान में भी कांग्रेस को कोई उम्मीद नहीं रही होगी वहा भी कांग्रेस ने कुछ सीटे पा लीं । मध्यप्रदेष भी यदि हार मान कर चुनाव नहीं लड़ता तो यहासं से भी कुछ सीटों की जीतेने की उसकी उम्मीद थी । अब भाजपा अपने सहयोगियों के साथ सत्ता में तो है पर निर्भीकता से हुकंमत नहीं कर पायेगी ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है । खुद प्रधानमंत्री जी वाराणसी से केवल डेढ़ लाख वोटों से ही जीते वहीं बड़बोलेपन के लिए मषहूर स्मृति इरानी राहुल गांधी के पीए से चुनाव हार गई । चुनावी नतीजो का पूर्वानुमान कोई नहीं लगा पाया । एक्जिटपोल वाले भी हवा-हवाई राग अलापते रहे । जब रिजल्ट ख्ुले तो सभी हैरत में । वैसे इंडिया गठबंधन वाले हैरत में नहीं थे वे तो चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे थे कि हम 295 सीटें ला रहे हैं अब इतनी सीट भले ही न ला पाए हों पर जितनी भी लाए वह ही बहुत है । कमजोर होते जा रहे विपक्ष के लिए यह संजीवनी का काम करेगीं । लोकतंत्र में विपक्ष का रहना जरूरी है । आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत जी ने तो साफ बोल ही दिया कि विपक्ष को विरोधी नहीं कहा जाना चाहिए । पर सारे लोग अब विपक्ष को विरोधी ही बोलते हैं  विरोधी वो जो विरोध करे । वे भी हर एक बात का ही विरोध करते हैं । कभी अच्छी बात का समर्थन भी करना चाहिए । भाजपा अपने सहयोगियों के साथ सत्ता पर काबिज हो चुकी है । प्रधान मंत्री श्री मोदी जी ने लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने का रिकर्ड अपने नाम दर्ज कर लिया है । करीब आठ हजार लोगों की उपस्थिति में उन्होने शपथ ली । भारत के लोकतंत्र पर पूरे विष्व की नजर होती है । पूरा विष्व यहां के घटनाओं को कवर भी करता है । अब एनडीए कम बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज है और विपक्ष बहुमत के थोड़ी ही दूर खड़ा होकर सत्ता पक्ष की किसी गल्ती पर टकटकी लगाए हुए है । उसे संभावना है कि ‘‘बिल्ली के भाग्य से छींका टूट सकता है’’ । सत्ता पक्ष को भी सत्ता में रहते रहते यह अहसास बना रहेगा कि अब वह कमजोर है । राजनीतिक विषलेषकों का अनुमान है कि इस सबसे लोकतंत्र ज्यादा मजबूत होगा । कांग्रेस उत्साहहीन दृष्टि के साथ चुनाव लड़ रही थी पर क्षेत्रीय पार्टियां अपने अस्तित्व को बचाने के लिए पूरे उत्साह के साथ चुनाव लड़ रही थीं । यह सही है कि यदि इस बार भी क्षेत्रीय पार्टियों की सीटें कम आती तो उनका अस्तित्व खतरे में पड़ जाता । जैसे मायावती की पार्टी बसपा का हो गया है । बसपा एक भी सीट नहीं जीत पाई । वैसे उसकी मदद से भाजपा ने उत्तर प्रदेष में कुछ सीटें और जीत लहीं वरना वे उन सीटों पर भी हार जाते । क्षेत्रीय पार्टियों का अस्तित्व में रहना अब जरूरी भी लगने लगा । राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों में केवल कांग्रेस ही है जिसनें अपने तमाम बुरे दिनों के बावजूद भी पहले से अधिक सीटें जीत ली है । कांग्रेस से जिस तरह से नेता उसे छोड़-छज्ञेड़ कर भाजपा में चले गए उससे वह और कमजोर हुई है । राष्ब््रीय प्रवक्ता तक उनका साथ छोड़ गए । पर कांग्रेस जो बचा है उसे समेट कर संघर्ष करती रही और अपने राष्ट्रीय पार्टि होने के तमगे को बचाए रही । एक समय तो भाजपा ने नारा ही दे दिया था कि ‘‘कांग्रेस मुक्त भारत’’ । पर सभी जानते हैं कि कांग्रेस मुक्त भारत कभी नहीं हो सकता क्योंकि वह सबसे पुरानी पार्टी है और देष के हर कोने तक वह फैली हुई है । भविष्य कांग्रेस का ही है भले ही कई राज्यों में उसकी उपस्थिति शून्य होती जा रही हो इसके बावजूद भी वहां उसका अस्तित्व खत्म नहीं हुआ है और न ही हो पाएगा । कांग्रेस ने हारी हुई लड़ाई में अपने आपको पहले से बहतर किया है वहीं भाजपा ने दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद भी अपने को कमजोर किया है । चूक कहां हुई इस पर विष्लेषण होगा पर धरतलीय अनुमान तो यह ही है कि वे 400 पार के नारे के षिकार बन गए । उनके नेता बड़बोलेपन पर उतारू हो गए थे और मंच से हेने वाले भाषणों की भाषा गरीब मोहल्लें में होने वाली महिलाओं की लड़ाई के भांति दिखाई और सुनाई देने लगी थी । मोहन भागवत जी ने सच ही कहा है कि चुनाव में भाषा पर नियंत्रण रखा जाना आवष्यक है । यह तब और जरूरी है जब हम मानते हैं कि यहां की सारी खबरे विष्व पटल पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है । वैसे भी मोहन भागवत जी एक विचारषील व्यक्ति हैं उनकी हर एक बात को समझना आवष्यक होता है । इस बार का उनका पूरा भाषण सुनने लायक रहा । वैसे वह अमल करने लायक भी है । मणिपुर जल रहा है इस पर ध्यान दिया जाना भी तो जरूरी है । मूणिपुर की ओर फिलहाल किसी का ध्यान है ही नहीं । मिएपुर के हालातों को सम्हालना पहली प्राथमिकता में शामिल किया जाना चाहिए । सत्ता के साथ विपक्ष का रहना भी जरूरी है और विपक्ष का केवल विरोध ही करते रहना है के भाव भी गलत हैं । लगभग दो माह के अथक परिश्रम के बाद चुनाव पिनट गए और एनडीए सत्ता में आ गया अब भाजपा सत्ता में आ गई ऐसा नहीं कहा जाएगा अब वह अपने समस्त घोषित-अघोषित पार्टियों के साथ सत्ता में आई है तो वह एनडीए सत्ता में आयार है के संबोधन से पहचानी जाएगी । भाजपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र में बहुत सारे वादे किए है वे उन्हें कैसे पूरे कर पायेगें यह भी देखना होगा क्योंकि अब वे अकेले तो निर्णय कर नहीं सकते उनके साथ भी क्षेत्रीय पार्टियां ली हुई हैं और क्षेत्रीय पार्टियों का अपने क्षेत्र के हिसाब से बिल्कुल अलग हीगण्ति होता है । उन्हें अपने राज्य की आबादी के अनुसार निर्णय लेने पड़ते और उनके द्वारा लिया गया हर निर्णय उन्हें प्रभावित भी करता है सो वे संभल-संभल कर निर्णय लेते हैं । टीडीपी की अपनी मजबूरियां हैं और जेडीयू की अपनी मजबूरियां हैं । वैसे चुनाव में ऐसे लोगों को हार का सामना करना पड़ा जिन्होनें सत्ता की लालच में अपनी ही पार्टी के साथ धोखा किया । इनमें वे नेता तो शामिल है ही जो पार्टी छोड़कर आए और दूसरी पार्टी की टिकिट पर चुनाव लड़े इनमें से करीब अस्सी प्रतिषत नेता हार गए वहीं अजीत पवार की पार्टी को भी नुकसान उठाना पड़ा और षिवसेना तोड़कर सत्ता में आए एकनाथ षिंदे की पार्टी को भी । जनता ने उनकी हरकत को नकार दिया तो अब भी नेता सम्हल जाएं और दन चुनावी परिणामों से सबक ले लें तो उनके लिए भी बेहतर होगा और लोकतंत्र के लिए भी । पर ऐसा होगा इसकी कोई संभावना नहीं है । पष्चिम बंगाल में ममता जी का जादू बरकरार रहा कहां तो ऐसा लग रहा था कि इस बार भाजपा वहां अपना परचम लहरायेगी पर परिणाम बेहतर नहीं आए । कुल मिलाकर चुनाव के परिणामों ने सीख तो बहुत दी है पर अब इस सीख से कोई सीख ले तब ही बात बनेगी ।                           

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