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अतिवादिता समाधान नहीं

अतिवादिता समाधान नहीं

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दो गहरे और शीर्ष महत्व के आकर्षणों में फँसा है हमारा भारत। भारत काअर्थ निश्चय ही भारतीय समाज की मनोदशाओं सेहै।परिणामतःमात्र मानसिक द्वन्द्व  तथाउलझन ही नहीं,भौतिक स्तर पर भी संघर्ष झेलने ही पड़ते हैं।आग बढ़ने के लिए हमने एक निश्चित दिशा नहीं तलाशी है।जैसे जैसै हम आसमान की ऊँचाइयों,धरती की गहराइयों और दिशाओं के विभिन्न आयामों को तलाशने की कोशिश करते हैं,;कहीं से आकर्षण का एक सूत्रजो हमारे चिंतन की जमीन से जुड़ा है-,हमेंविपरीत दिशा की ओर भी खींचने का यत्न करता है।यह भारत की द्वैध मानसिकता का परिचायक है। यह बात कुछेक व्यक्तियों की मानसिकता से जुड़ी नहीं है बल्कि सम्पूर्णभारतके विभिन्न भावनात्मक समूहों कीमानसिकता से जुड़ी है जिनमें निरंतर खींचतान होती ही रहती है।हमारा बौद्धिक जगतदोनों के यथार्थ और अनिवार्यता को समझता हैपर एक साथ ही दोनो क्षितिजों को पा लेना इतना सहज नहीं।हर भौतिक समृद्धि हमेंभावनात्मक संघर्ष को विवश करती है।समृद्धि विलास को जन्म देती है।अथक परिश्रम से प्राप्त समृद्धिभविष्य के कल्पनालोक तक ले जाती हैऔर नयी नयी ऊँचाईयोंकी तलाश में हम चरम भौतिक परीक्षणों से जूझते रहते हैं।उसे ही जीवन का साध्य मान लेते हैं।भूल जाना चाहते हैं जीवन जगत के उस सत्यकोजो इन प्रलोभनों से हमें बचा सकता है।

                   यह संघर्ष हर स्तर पर निरंतर जारी है।व्यक्तिगत,सामाजिक,राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय और इन सबसे जुड़ी राजनीतिक स्तर पर इस संघर्ष के विविध स्वरूप देखने को मिलते हैं।इनका क्रमिक विकास होता जाता है।सच पूछिये तो यह एक भूल भुलैया है जिससे बाहर निकल आने का मार्ग नहीं दीखता।

            हमारे राष्ट्र भारत के विषय में भी यही  सत्य है।इस संघर्ष से जुड़ी दो छोर की  मानसिकताओं नेदेशप्रेम की भावना से जुड़,उसके सांवैधानिक स्वरूप के वाह्य ढांचे से जुड़ अपने मार्ग को दुरूह कर लिया हैएक तो वह देशप्रेम जिसमें आधुनिक ज्ञान विज्ञान की ऊँचाईयों को पाना अनिवार्य है, यह विश्व- काल की माँगहै,युगधर्म है,हमपीछे नहीं हट सकते । हमें आगे बढ़ना ही होगा ।सम्पूर्ण विश्व इन ऊँचाईयों को छूने की होड़मेंआग बढ़ने को प्रयत्नशील है।  हम अगर प्रयत्नशील न हों  तो शक्तिलोलुप ,भूमि लोलुप और प्रभुत्वलोलुप राष्ट्रों के शिकार बन हम अपनी स्वायत्तता खो सकते हैं ।हमारी प्रतिभा कुंठित हो सकती है। ।यह वह प्तिभा है जिसने अन्तर्राष्ट्रीय जगत में विशेष सम्मान का दर्जा हासिल किया है।

               किन्तु उपरोक्त भावना सीमाहीन है।यह सीमाहीनता की दुनिया हैजहाँ राष्ट्र के अन्य पहलुओं की उपेक्षा भी हम करदे सकते हैं।देश केभीतर सामाजिक समस्याएँ पल रहींहैं।। विकास के साथ ही साथ इनसमस्याओंका उदित होना देश के सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य को देखते हुए स्वाभाविक प्रतीत होता है परउनका समुचित समाधान भी उसी तरह अपेक्षित है।किन्तु उपरोक्त उपल्धियाँहमारी सम्पूर्ण बौद्धिक आर्थिक शक्तियों  का उसी दिशा में कर्षण करना चाहती हैं।वैश्विक अशान्ति का भी यहीं जन्म होता है।शक्ति प्रदर्शन और शक्ति संतुलन के खेल का आरम्भ भी यहीं होता है।अगर यही रास्ता आज हमारे राष्ट्र और समाज का हो तो कोई बात नहीं हम निर्द्वन्द्व होकर उसपर बढ़ सकते हैं।लड़ने भिड़ने ,भोग उपभोग कोही दुनिया कीवास्तविकता का नाम दे सकते हैं।किसी अन्य सत्यान्वेषण की कोई अवश्यकता नहीं।किन्तु हमारे दे श की एक अन्य दुनिया  भी है चिन्तन और चरम सत्य के अन्वेषण की दुनिया, जीवन और जगत से सम्बन्धित अध्यात्मिक खोज की दुनिया जिसे हम छोड़ नहीं सकते और जिसके आधार पर अपने कार्यों अपनी गतिविधियों को यदा कदा परखना नही छोड़ते। वह हमारी आन्तरिक आत्मसन्तुष्टि की दुनिया हैऔर जिन देवों मनीषियों ,ऋषियों को भारत के साथ पहचानस्वरूप जोड़कर रखना चाहते हैं ,यह उनके विचारों की दुनिया है।यह चिन्तन की सीमाहीनता की दुनिया हैजिसे आधुनिक युग मेंप्रवेश करने के बहुत पूर्व हमने विजित कर लिया था।जिसने सम्पूर्ण प्रकृति –चर अचर ,जीव जगत को देखने काअद्भुत साथ ही मानवतादी दृष्टिकोण हमें प्रदान किया था।और इसी आधार पर विश्व में वह स्थान हासिल कर लिया था जिसे आजतक कोई हासिल नहीं कर सका।ज्ञान का यह मुकाम हमारे आत्मिक जीवन की निष्ठा और पवित्रता का आधार है।.

          इन दोनो ही भारतीय स्वरूपों में निरंतर ही संघर्ष इसलिए उत्पन्न होता है कि देश केबहुरंगी आयातित  जातियों की विचारधाराओं में इषत् वैभिन्न्य भी लक्षित होता हैऔर वाह्य शासकीय जतियों का प्रभाव भी हमारे समाज पर पड़ा है।परिणामस्वरूप अपनी प्रकृतिगत नैतिकता और , मानवता के इस आधार को हम वैश्विक देन समझ लेते हैं ।भारतीयता को उससे दूर कर देते हैं।

                   दुर्भाग्य से हमारे भारतीय समाज में उपरोक्त दो आधारों के कारणदो महत्वपूर्ण स्थायी वेचारिक  खण्ड हो गये हैंएक खण्ड हमारी पुरानी उपलब्धियों को भुलाकरमात्र वर्तमान में जीना चाहता है जबकि दूसरा खण्ड उसे साथ लेकर चलने में विश्वास करता है।दोनों की अतिवादिता ही संघर्ष को जन्म देती है।।आज हमारे देश की कमोवेश यही स्थिति है।

दृष्टियों की अतिवादिता न हो तो बहुत सारी समस्याओं का समाधान  अपने आप हो जाता है।अतिवादिता सर्वकाल में कष्टकारी होती है।आज की आगे बढ़ती हुई दुनिया को हम समाज के आदिकाल में खींचले जाकर प्रतिस्थापित नहीं कर सकते। उस समय विशेष के तर्कों जो काल प्रभावित थे,आज के तर्कों पर हम हावी नहीं कर सकते।आज के तर्कों का दृष्टिकोण मानवतावादी है।हमारे पुराने तर्कों में आत्मा परमात्मा ,सृष्टि, संहार जैसे तत्वों की प्रधानता थी। गौतम बुद्ध ने मध्यम मार्ग से जीने की कला सिखायी थी।–वीणा के तारों को इतना मत खींचो कि वह टूट जाए।,उसे इतना ढीला भी नछोड़ो कि उससे सुर ही न निकले।यह मध्यम मार्ग ही जीने का सही रास्ता हो सकता है,संसार की बहुत सारी समस्याओं का समाधान कर सकता है।

हम जिस आदिम संसार के सिद्धान्तों पर पर जीव गत के सिद्धान्तों की व्याख्या करना चाहते थे वह संसार जनसंख्या की दृष्टि सेअति संक्षिप्त संसार था।जरूरतें कम थींऔर मानव को अपने अस्तित्व ,अनस्तित्व का कारण ढूँढ़ना था।यह  प्रमुख समस्या थी जो बौद्धदिक जीवन  का आधार था।परधीरे धीरे सामाजिकता के घोर जंजाल में फँसता मनुष्य कमोवेश आज के ही प्रलोभनों का दास बनता गया,और नये जीवन सूत्रों की ओर उन्मुख होता गया।

—-आज घोर संघर्षमय जीवन है।जनसंख्या का अनन्त सागर लहरा रहा है।सबके मुख में आहार ,पहनने को वस्त्र,रहने को घर, एक स्वस्थ वातावरण, विकास की सुविधाएँ आदि मौलिक जरूरतों की पूर्ति करनी है।स्थानविशेष के निवासियों कीजीवन प्रणाली के अनुसार अन्य सारी सुविधाएँ भी उपलब्ध करानी है।ऐसे में अपनी प्राचीन जीवनशैली को आधार मान ही हम कैसे जी सकते हैं!अपने इस विराट देश के सर्वधर्म समन्वयात्मक स्वरूप से जुड़ी विराटता की रक्षा करने में ही हमारी पहचान सुरक्षित रह सकती है।नैतिकता के आधार पर अपने प्राचीन और उचित सिद्धान्तों का पोषण करना और कराना हमें धैर्यपूर्वक सीखना होगा।आधुनिक जनमानस को तर्कों से अनुकूल करना होगा,भावनात्मक नारों से नहीं।

—हाँ यह सही है कि हमारी दृष्टि गोमाता गोरक्षण नदियों को व्यक्तियों का दर्जा देने जैसीबातों से उत्पन्न देश की उस आन्तरिक समस्या पर है जिस पर नियंत्रण न करने से देश में सम्पूर्ण अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो सकती हे,की जा सकती  है।आन्तरिक संघर्ष ,आन्तरिक अशान्ति और इमरजेंसी जैसी स्थितियाँ एक श्रृंखला बना सकती हैं।वाह्य अशान्ति से हम जूझ रहे हैं ।सैन्य शक्ति हमारी शक्ति की प्रथम प्राथमिकता बनी है।दूसरी ओर ये दिखने में छोटी  आन्तरिक  समस्याएँजिन्हे लेकर  देश को आन्दोलित करने की  चेष्टा की जा रही है । ये बाहरी शक्तियों का ध्यान भी आकर्षित करती हैं जिनका वे लाभ उठा सकते हैं।अभी भी बहुत सारी समस्याएँ विदेशों  द्वारा ही पोषित हो रही हैं।साथ ही सत्ता के खेल में साम दाम दंड भेद अपनानेवाले वे भी ,जो पर्दे के पीछे से  सूत्र संचालन करना जानते हैं,अपना कार्य साधते रहते हैं।

         अतः इस खेल को कठोर दंडात्मक प्रणाली से समाप्त करना ही श्रेयस्कर होगा।साथ ही हमें अतिवादिता से बचने की भी चेष्टा करनी होगी।

आशा सहाय।

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