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गर्मी की कुण्डलियाँ

अजय कुमार पाण्डेय

1

दिन सारा जलता लगे, लगे सुलगती शाम

 रवि को कुछ इसके सिवा, और नहीं है काम

और नहीं है काम, धूप में लगा तपाने

बरसा के फिर आग, लगा औकात दिखाने

न विद्युत है न नीर, जी रहे दिन गिन गिन

सब प्राणी बेचैन, कठिन अब गर्मी के दिन।

2

जल उठी तन की चमड़ी, धूप बहुत है तेज़

थपेड़े गर्म हवा के, करते सदा सचेत

करते सदा सचेत, स्वार्थ त्यागो सब आओ

रहे नियंत्रित ताप, बात सब को समझाओ

गया हाथ से आज, और कब आयेगा कल

 बचेगा कुछ न पास, ये जगत जायेगा जल।

3

व्याकुल जंतु जीव सभी, हलाकान दिन रैन

धूप चिलचिलाती बड़ी, करे बहुत बेचैन

करे बहुत बेचैन, पसीना झरता जाता

चलती लू भी तेज़, कलेजा मुँह को आता

बरस रही ज्यों आग, गगन है कितना आकुल

हालत है गंभीर, जगत गर्मी से व्याकुल।

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