समज्ञा स्थापक
गाडरवारा
ढूंढ़ रही हूॅ बासंती बयार को
सुना है पीली हो जाती है धरा
सुना है मुसकुराने लगते हैं वृक्ष
सुना है लाल हो जाते हैं टेसु
सुना है बौराने लगते हैं आमपाली
सुनी तो बहुत है बसंत कहानी
इसलिए ही तो खोजती रहती हॅू
अक्सर धरा से नभ तक
कभी कभी अपने अंदर
मेरे अंदर पल रहा है
एक अर्न्तद्वद
ठीक वैसे ही जैसे झड़ते है
किसी वृक्ष से पत्ते
बिखर रहे हैं मेरे भी सपने
हर टूटते पत्ते के साथ
जन्म लेती है संभवाना
नए कोंपल के उदित होने की
पर मैं बंजर धरा सी
कांप रही हूॅ
अचेतन के संग्राम से
नहीं अब नहीं आयेगीं
नई कोंपलें
नहीं अब नहीं आयेगें
सुनहरे सनपे
औरत हूॅ न
यूं ही कैद मे कट जायेगी जिन्दगी
अब कभी नहीं आयेगा बसंत
सोच लेती हूॅ में