आजादी का अमृत वर्ष और अब 75वे स्वतंत्रता दिवस पर देश को आह्लादित करने वाला लोकतंत्र निश्चित ही भारत के गौरवशाली इतिहास को उकेरे पर परतंत्रता के विरुद्ध निरंतर एक हजार वर्षों तक सशस्त्र संघर्ष करने के फलस्वरूप अंततः हमारा अखंड भारतवर्ष दो भागों में विभाजित होकर ‘स्वतंत्र’ हो गया। गुलामी की जंजीरों को तोड़ डालने के लिए कश्मीर से कन्या कुमारी तक भारत के प्रत्येक कोने में यह जंग लड़ी गयी। वीर योद्धाओं, क्रांतिकारियों, संतों, आश्रमों, गुरुकुलों ने विदेशी और विधर्मी शासकों को अपनी मातृभूमि से उखाड़ फैंकने के लिए अपने बलिदान दिए। माताओं-बहनों के जलती आग में कूदकर जौहर किये। परतंत्रता के इस कालखंड में लाखों देशभक्त युवकों ने फांसी के तख़्त चूमे। वास्तव में हमारा इतिहास परतंत्रता का ना होकर गुलामी के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष का वीरव्रती इतिहास है। सम्राट दाहिर, बाप्पा रावल, राणा सांगा, राणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, गुरु गोविन्द सिंह, छत्रसाल, सुहेल देव, 1857 के महान योद्धा, वासुदेव बलवंत फड़के, सतगुरु रामसिंह, वीर सावरकर, सरदार भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस और डॉ. हेडगेवार सहित लाखों क्रांतिकारियों और करोड़ों देशवासियों ने स्वतंत्रता देवी के खप्पर को अपने लहू से लबालब भरा है। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में पांच लाख से भी अधिक देशभक्त नागरिकों ने अंग्रेजों से लड़ते हुए अपने बलिदान दिए हैं। साम्राज्यवादी ब्रिटिश हुकूमत को हिलाकर रख देने वाले इन शहीदों को भुला देना महापाप एवं इतिहासिक अन्याय होगा। भारत का कोई गाँव ऐसा नहीं होगा जिसमें कोई ‘शहीद’ ना हुआ हो। अत्याचारी, विदेशी-विधर्मी निरंकुश शासकों को तख्ता पलटने के लिए वीरांगना नारियों ने भी अपनी तलवार, पिस्तौल और बमों के साथ खून के फाग खेले हैं। गुलामी के कलंक को मिटाने के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध जंग में देश के प्रत्येक कोने में राष्ट्रभक्त क्रांतिकारी युवकों और अनेक संस्थाओं ने सशस्त्र प्रतिकार को बुलंद करने के लिए हथियार उठाए थे। क्रन्तिकारी संगठन अनुशीलन समिति, बब्बर खालसा, हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक सेना, अभिनव भारत, आर्य समाज, हिन्दू महासभा, आजाद हिन्द फौज, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, राष्ट्रवादी लेखकों, कवियों एवं वीररस के साहित्यकारों की मुख्य भूमिका को ठुकराकर सारे स्वतंत्रता संग्राम को एक ही नेता और एक ही दल के खाते में दाल देने का जघन्य अपराध भी इसी देश में हुआ है। यह घोर कुकृत्य उन तथाकथित लोगों ने किया है जिन्होंने अपनी जान को हथेली पर रखकर स्वतंत्रता संग्राम को धार देने वाले क्रांतिकारियों को पथभ्रष्ट तथा सिरफिरे तक कह दिया था। यह वही लोग हैं जो हाथ जोड़कर अंग्रेजों से आजादी की याचना करते रहे। अखंड भारत की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए वर्षों पर्यंत बलिदान देने वाले वास्तविक सेनानियों के साथ विश्वासघात कर के भारत को खंडित करके, कथित आजादी की सारी मलाई चाटने वाले लोग आज भी जब ‘दे दी हमें आजादी बिना खड़ग बिना ढाल’ गीत को बजाते, सुनाते एवं सुनते हैं तो कलेजा फट जाता है। कल्पना करें कि फांसी के तख्तों पर लटकने वाले क्रांति योद्धाओं की आत्मा कितनी तड़पती होगी। यह वास्तव में सरदार ऊधम सिंह, वीर सावरकर, रास बिहारी बोस, श्यामजी कृष्ण वर्मा, खुदीराम बोस, चाफेकर बंधु एवं सुभाष चन्द्र बोस का अपमान करके उनकी खिल्ली उड़ाता है। यह गीत बम, बन्दूक, तलवार को धता बताकर अहिंसावादियों का ही बोलबाला करता है।
उल्लेखनीय है कि एक हजार साल के विदेशी अधिपत्य को भारत के राष्ट्रीय समाज ने एक दिन भी स्वीकार नहीं किया। आजादी की जंग को लड़ते हुए प्रत्येक पीढ़ी आने वाली पीढ़ी के हाथों में स्वतंत्रता संग्राम की बागडोर सौंपती चली गयी। बिना खड़ग के और बिना ढाल के आजादी मिली’ यह दावा करने वाले अहिंसक योद्धाओं से पुछा जाना चाहिए की आपके दल के कितने नेताओं को अंग्रेजों ने फ़ासी पर लटकाया? एक को भी नहीं। सावरकर, भाई परमानन्द जैसे सैकड़ों क्रांतिकारियों की तरह कितने खद्दरधारियों ने काले पानी (अंदमान जेल) में अमानवीय यातनाएं सहीं? एक ने भी नहीं? लाला लाजपत राय को छोड़कर कितने सफेदपोश नेताओं ने अंग्रेज पुलिस की लाठियां खाई? एक ने भी नहीं। इसी सफ़ेद श्रेणी के कितने नेताओं ने भारत के विभाजन का विरोध करके स्वतंत्रता संग्राम को जारी रखने की बात कही? एक ने भी नहीं। क्रांतिकारियों की शहादतों को दरकिनार करने वालों से यह भी पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने सरदार भगत सिंह इत्यादि युवा क्रांतिकारियों का विरोध क्यों किया? जबकि यही युवा स्वातंत्र्य योद्धा महात्मा गांधी जी को एक महान नेता का सम्मान देते रहे।सत्याग्रह करके जेलों में जाना एक सराहनीय प्रयास था, इसमें कुछ भी गलत नहीं था। परन्तु यह कह देना कि केवल उन्हीं के कारण आजादी मिली यह तो अत्यंत निंदनीय है। अहिंसावादी सत्याग्रहियों को वास्तविक स्वतंत्रता सेनानी मान लेना उपहास का विषय है। 1857 का स्वातंत्र्य संग्राम नामक विश्व प्रसिद्ध पुस्तक के लेखक और अंडमान जेल में पूरे 9 वर्षों तक यातनाएं सहने वाले वीर सावरकर के शब्दों में – “स्वाधीनता संग्राम का पूर्ण श्रेय कांग्रेस के अपने और गांधी जी के कन्धों पर लाद देना, देश के उन असंख्य हुतात्माओं ना केवल अन्याय ही है अपितु हमारे राष्ट्र के पुरुषत्व को नष्ट करने तथा समस्त भारत के पराक्रम को समूल उखाड़ देने का राष्ट्रघाती प्रयास भी है”। यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि क्रांतिकारियों द्वारा किये जाने वाले बम धमाकों ने पूरे देश में क्रांति की अलख जगा दी। इन युवकों ने फ़ासी के तख्तों पर चढ़कर ब्रिटिश हुकूमक के अत्याचारों को जन-जन तक पहुंचा दिया। इस सशस्त्र क्रांति ने भारतीय सेना में भी अंग्रेजों के विरुद्ध वातावरण बनाया, जिसके फलस्वरूप सेना में विद्रोह हो गया और हिन्दू सैनिकों की बंदूकों के मुंह अंग्रेजों की ओर मुड़ गए। उधर अब तक अंग्रेजों का साथ देने वाले रियासती राजाओं ने भी ब्रिटिश हुकूमत की हाँ में हाँ मिलाने की रस्मअदायगी को तिलांजलि देना शुरू कर दिया। शहरों से ग्रामीण क्षेत्रों तक बगावती स्वर तेज होने लगे। इसी वजह से अंग्रेजों को भारत से भागकर या यूं कहें कि अपनी जान बचा कर अपने घर लौटना पड़ा। उस समय के इंग्लैंड के प्रधानमंत्री एटली ने ब्रिटिश संसद में चर्चिल द्वारा पूछे गए प्रश्न के उत्तर में स्पष्ट कहा था कि – “ब्रिटिश सरकार के भारत को सत्ता सौंप देने के दो कारण हैं। पहला यह कि भाड़े पर देश के हितों को बेचने वाली भारतीय सेना अब अंग्रेजों की वफादार नहीं रही तथा दूसरा यह कि ब्रिटिश सरकार भारत को अपने पंजे में दबाए रखने के लिए इतनी विशाल अंग्रेजी सेना खड़ी करने में असमर्थ है। भारत का विभाजन करके पाकिस्तान का निर्माण करने वाले इन्हीं एटली साहब ने एक स्थान पर कहा था कि – “हमने 1942 के आन्दोलन के कारण भारत नहीं छोड़ा। हमने भारत छोड़ा नेताजी सुभाष चंद्र बोस के कारण। नेताजी अपनी फ़ौज के साथ बढ़ते-बढ़ते इम्फाल तक जा चुके थे। उसके तुरंत बाद नौसेना और वायुसेना में विद्रोह हो गया था।” जाहिर है कि अंग्रेजों ने चरखे की घूं-घूं अथवा सत्याग्रहियों द्वारा दबाव पड़ने से भारत को नहीं छोड़ा। उन्होंने भारत को छोड़ा भारतीयों की मार खा कर। इसमें कोई दो मत नहीं हो सकते कि स्वतंत्रता संग्राम में नब्बे प्रतिशत भागीदारी सशस्त्र योद्धाओं ने की थी। दूसरे विश्व युद्ध में विजयी होने के बावजूद भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के परखच्चे उड़ चुके थे।
____ पंकज कुमार मिश्रा एडिटोरियल कॉलमिस्ट शिक्षक एवं पत्रकार केराकत जौनपुर।