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बुर्खा और घूँघट प्रथा —-एक सामाजिक बुराई

कभी तो देखे अपनी माँ को, जो बुर्खा मुख पर ओढ़े थी , कभी बोलती बिना जुबां के, माँ कब तू मुख खोलेगी ! क्या मेरी जवानी और बुढ़ापा तेरी तरह ही गुजरेगा , जो तेरे था साथ हुआ, क्या वो सब मुझपर बीतेगा ! कैसे गर्मी धूप में भी तू, सर ढक कर के…

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सूरज की सगी बहन

आग उगलती दोपहरी ये अंगारे सा दिन, कब आषाढ़ घन गरजेंगे कब बरसेगा सावन। प्यासे अधर नदी झरनों के, कंठ कुओं के सूखे, दिन भर के दुबके नीड़ों में, पंछी सोऐं भूखे। प्रातः से ही तपन तपस्विन करने लगी हवन, कब मेघों का बिजुरियों से होगा मधुर मिलन। सड़कों पर सन्नाटा लेटा, मृग मरीचिका बनकर,…

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प्यासी धरती मुरझा मधुवन

प्यासी धरती तुझे पुकारे, प्यासी नदिया तुझे पुकारे,       आ रे मेघा अब तो आ रे। बादल नीलगगन पर छाते, संग आंधियों को ले आते, तेरे राजदूत बनकर वे, झूठे आश्वासन दे जाते। सूखी पोखर तुझे पुकारे, आ रे मेघा अब तो आ रे।  कोयल सूखी अमराई में,  विरह गीत गाती रहती है,  और मोरनी…

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नमन तुम्हें मेरा शत बार नमन

हे भारत के रत्न तुम्हे मेरा शत बार  नमन मौन हो गयी चारो दिशाएँ, शान्त हो गयी सभी हवाये , उदय हुआ गहन उदासी ले सूर्य भी पर निस्तेज सा जैसे कही कुछ खो गया कोई बहुत अपना बस यही खो गया   मौन हो चले सभी सुबह के कलरव बस छाई एक निस्तब्धता एक…

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“दुकानदारी”

सज्जन सिंह शहर में कोई    बड़ा नाम तो नहीं था लेकिन विश्वास का नाम था। उनकी एक छोटी सी दुकान हुआ करती थी। खूब चलती थी। कोई सामान शहर की बड़ी से बड़ी दुकान पर नहीं मिलता तो सज्जन सिंह की दुकान पर मिल जाता। यही वजह थी कि सारा शहर उन्हे जनता था। सज्जन…

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